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बिषय पर मोह - उस का सच्चा दिग्दर्शन- समताप्राप्ति का उपदेश.
नो धनैः परिजनैः स्वजनैर्वा, दैवतैः परिचितैरपि मंत्रः । रक्ष्यते खलु कोsपि कृतांतानो, विभावयसि मूढ़ किमेवम् १ ॥ २९ ॥
तैर्भवेऽपि यदहो सुखमिच्छ्रं - स्तस्य साधनतया प्रतिभातैः । मुह्यास प्रतिकलं विषयेषु,
प्रीतिमेषि न तु साम्यसतत्त्वे ॥ ३० ॥ अर्थतो युग्मम्.
" धन, सगे-सम्बन्धी, नौकर-चाकर, देवता अथवा परिचित मंत्र, कोई भी यम (मृत्यु) से रक्षा नहीं कर सकता । हे अल्पज्ञ प्राणी ! तूं ऐसा विचार क्यों नहीं करता ? सुख मिलने के साधनरूप प्रतीत होनेवाले ( धन, सगा, नोकर आदि ) में हे बड़े संसार में सुख मिलने की इच्छा रखनेवाले भाई ! तूं प्रत्येक क्षण विषयों में गर्त होता जाता है, परन्तु समतारूप सच्चे रहस्य में प्रीति नहीं रखता है" ।। २९-३० ।।
स्वागतावृत्त. भावार्थ - यह ऊपर लिखा गया है कि यह प्राणी ममत्व के वशीभूत होकर मृत्यु के भय को भूल जाता है। इस हकीकत को और दृढ़ करने निमित्त कर्त्ता कहता, कि तेरे पास चाहे १ दैवतैरिति वा पाठः ।