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पाठ कोग पिदावली बोल रहे हैं। कषि, सैन्य, प्रधानमंडल आदि साहित स्वयं नगर-भ्रमण को नीकलता है और कचहरी के समय भनेक सामन्त वर्ग तथा राजा लोग उसका आदर करते हैं। ऐसी स्थिति में आनंद मानते हुए उसका स्वप्न समाप्त हो गया, भाँखे खुल गई । देखता क्या है कि न तो राज्य है, न प्रधानमण्डल है, न कवि है, न सेना है, न सामन्त लोग हैं और न सुन्दर सिंहासन ही है। केवल एक तरफ फटी पुरानी गुदड़ी
और दुसरी तरफ अवशिष्ट भिक्षान्न से भरा हुआ ठीकरा पड़ा हुमा है।" संसार का सुख इस प्रकार का है। प्रथम तो इसमें सुख ही नहीं है और कदाच इससे सुख भी कहें तो कितना सा? और कैसा ? स्वप्न के सुख को मुख कहना ही प्रथम तो भूल है। और फिर वह बहुत थोड़े समय तक रहनेवाला है, तथा अपनी वास्तविक स्थिति प्राप्त करानेवाला और मानसिक दुःख बड़ानेवाला है, तो फिर उसमें प्रासकि रखना निरुपयोगी ही नहीं वरन् हानिकारक भी है। भिखारी के मुख में जिस प्रकार छुछ दम नहीं दिखाई देता उसी प्रकार इस संसार के माये हुए मुख में भी वस्तुतः कुछ दम नहीं है । इसी प्रकार अपनी इच्छा के विपरीत यदि कोई पदार्थ प्राप्त होजाय तो उसके लिये भी रोष करना व्यर्थ है, कारण कि स्वयं वस्तु किसी भी प्रकार से अपना हित एवं अहित नहीं कर सकती। इसके सम्बन्ध में आनेवाले मन को किस प्रकार का काढ़ा पिलायें यह काम सुशों के विचारने का है, परन्तु इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तु पर हर्ष या रोष करना वस्तुस्वरूप का अज्ञान होना प्रगट करता है । देवता लोग तथा वैसी शक्तिवाले पुरुष किसी न किसी निमित्त को ले
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