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का दूसरों के साथ क्या सम्बन्ध है, यह यहां देखिये | आत्मा द्रव्यरूप से ध्रुव अनादि है, पर्याय से पलटती रहती है, पुद्गल के संग में रह कर विचित्र जाति, नाम, शरीर धारण करती है, परन्तु स्वस्वभाव से शुद्ध चैतन्यवान् सनातन है। इसका स्वरूप बहुत से प्रन्थों में बताया गया है। श्रीलोकप्रकाश प्रन्य में इसका स्वरूप बताया गया है, उसका सार यहां दिया गया है। " जीव का सामान्य लक्षण चेतना है, विशेष स्वरूप पांच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन इन बारह का उपयोग है। सर्व जीवों का अक्षर का अनन्तवाँ भाग तो सर्वदा खिला ही रहता है, उसके बिना उपयोग का कोई भी जीव तीनों लोकों में नहीं है । चाहे जितने ढकनेवाले कर्म क्यो न हों फिर भी इस अक्षर का अनन्तवाँ भाग तो नहीं छिप सकता। अक्षर अर्थात् ज्ञान और दर्शन का सम्पूर्ण उपयोग समझे । जिस प्रकार सूर्य पर बादल छा गये हों, फिर भी कहीं न कहीं तो प्रभा खुसी ही है इसी प्रकार श्रात्मा का अनन्तज्ञान इक बाय तो भी बोडासा हिस्सा तो खिला ही रहता है और दिवस जिस प्रकार रात्रि से तेज के कारण भिन्न होता है, उसी प्रकार मात्मा भी अजीव से इसी लक्षण के कारण भिन्न होता है। यवपि मात्मा का सम्पूर्ण लक्षण ज्ञान है, तो भी कर्म से भावृत्त होने के कारण वह प्रगट रूप में नहीं आता, परनु खान में रहनेवाले सोने में जिस प्रकार शुद्ध कन्चनत्व है, उसी प्रकार भात्मा में भी अनंतज्ञान सर्वदा है, केवल उस पर तह जमी हुई है । ब्यक्त अव्यक्तरूप से जब आत्मा को क्षवोपराम होता है तब शक्ति और कार्यरूप से. शान उत्पन्न होता है और ... १ द्रष्यलोक-द्वितीय सर्ग ५३-७३.