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पादाहता प्रमदया विकसत्यशोका, शोकं जहाति बकुलो मधुसिंधुसिक्तः। प्रालिंगितः कुरुबकः कुरुते विकासमालोकितस्तिलक उत्कलिको विभाति ।
" अशोक वृक्ष पर जब स्त्री लात मारती है तब वह विकसित होता है, बकुल वृक्ष पर जब स्त्री दारु का फु डालती है तब वह शोक रहित होजाता है, कुरुबक वृष को जब स्त्री आलिंगन करती है तब वह भी विकसित होजाता है और तिलक वृक्ष के सामने जब स्त्री देखती है तब उसके कलिये भावी हैं-" इस प्रकार शब्दादि विषयों को ग्रहण करने की शक्ति सब प्राणीयों में होती है, उनमें से कितनी ही आर्ष प्रमाण से और कितनी ही अनुभक से सिद्ध है।
टीकाकार का यह अर्थ ठीक प्रतीत होता है । तियंच में हम देखें तो सर्प में क्रोध, हाथी में मान, शियाल में माया, उदर आदि में लोभ आदि भिन्न भिन्न प्रकृतियाँ प्रबल दिख पड़ती हैं, परन्तु विषयसुख की इच्छा तो सब प्राणियों में सामान्य होती है । संज्ञा प्रत्येक प्राणी में कितनी होती है इसका स्वरुप बताने के लिये शास्त्र में बहुत उल्लेख किये गये हैं। सामान्यतया प्रत्यक्ष जीव में चार संज्ञा बताई है-आहार, भय, मैथुन
और परिग्रह । ये सब संज्ञाएँ अनाभोग से वा आभोग से सब प्राणियों में होती हैं। ये ऐकेन्द्रिय में भी होती हैं, जिसके सम्बन्ध में बहुत से दृष्टान्त दिये गये हैं। इसके अतिरिक दस और सोलह संज्ञाएँ हैं । विस्तार से जानने के अभिलाषी