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अपशब्द कहती है, आपत्तिकाल में मित्र छोड़कर भग जाते हैं। माता पिता का सम्बन्ध भी जब तक स्वार्थभ्रंश न हो तब तक ही बहुत अच्छा रहता है, लेकिन जिसप्रकार चित्र के टुट जाने पर नेत्रों को जो सुख होता था वह नाश होजाता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष मातापिताओं के अभाव होने पर उनका भी सुख मिलना बन्द हो जाता है । शरीर के नाश होने पर मृत्यु से जो दुख होता है वह भी स्वार्थ ही के कारण होता है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन छवीसमें श्लोक में किया गया है । उसके नाश होने पर जो दुख होता है वह भी प्रेम को उत्तेजित नहीं करता, परन्तु उससे भी वैराग्यभाव ही उत्पन्न होते हैं । इस. प्रकार माता, पिता, स्त्री या पुत्र पर ममत्व रखना अज्ञान है, दुख का कारण है और याज्य है । यह सम्बन्ध क्या है ? कैसा है और कितने समय तक रहनेवाले है ? इस पर विचार करने से, आत्मतत्त्व का भान सहज ही में हो जायगा।..
मातापिता पर मोह नहीं रखने का यहां उपदेश किया गया है परन्तु इससे उनकी ओर हो सके इतना व्यवहार न रखना ऐसा न समझें । शास्त्र का जब एकदेशीय अभ्यास होता है तो धर्म के विशुद्ध फरमानों के ऐसे मूर्खतापूर्ण परिणाम होने का अविवेकी पुरुषों के सम्धन्ध में बहुत भय रहता है। प्रत्येक प्राणी को पुत्रधर्म, पतिधर्म, मावृधर्म, मित्रधर्म का बराबर पालन करना ऐसा शास्त्रकार का खास उपदेश है और अनेक स्थानों पर उस पर जोर दे देकर कहा गया है । सम्पूर्ण संसार पर से वासना हट जाय, लोक यज्ञ करने की विशुद्ध वृत्ति हृदय में जागृत हो जाय उस समय सोहजन्य सम्बन्ध से और पुत्र धर्मादिक धर्मों के खोटे अथवा अधुरे विचार से अटक जाना सम्भव न रहे और उन सम्बन्धियों की मृत्यु हो जाने पर