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पास्तव में ये तेरे हैं या नहीं इसका भी तूं विचार नहीं करता पर बहुत अनुचित है । माता, पिता, श्री या पुत्र का चित्र हो या उनका फोटो हो सो जिस प्रकार से वह किसी भी प्रकार 'का सुख नहीं पहुँचा सकता उसी प्रकार यदि तूं विचार करे वो मालूम होगा कि तेरे ये प्रत्यक्ष सम्बन्धी भी तुझे सदा सुख नहीं पहुंचा सकते । श्री वीर परमात्मा के हस्तदीक्षित शिष्य की धर्मदासगणि' कहते हैं कि:माया पिया य भाया, भजा पुत्ता सुहीय नियगा य। इह चेव बहुविहाई, करंति भयवेमणस्साई ॥ . ' इस संसार में माता, पिता, भाई, खी, पुत्र, मित्र और अपने सम्बन्धी अनेक प्रकार का भय और मानसिक दुःख उत्पन्न करते हैं।' सूमिहाराज के कहे अनुसार सम्बन्धी मरण से वियोगजन्य दुख देते हैं इतना ही नहीं, परन्तु जीवित ही अनेक प्रकार के दुख देते हैं । ऐसे दुखोत्पादक सम्बन्ध में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की माता चुलणी के मावा-सम्बन्धी का दृष्टान्त, कनककेतु के पिता सम्बन्ध का, कोणिक (श्रेणिकपुत्र) पुत्र सम्बन्ध का और नयनावली ( यशोधर राजा की राणी) स्त्री सम्बन्ध का दृष्टान्त उचित प्रतीत होते हैं। इस सम्बन्ध में शास्त्रोक दृष्टान्तों को देखने के अतिरिक्त प्रत्येक पुरुष का अपने . अनुभव का भी विचार करना चाहिये । एक थोड़ीसी दौलत के लिये जब भाई भाई लड़ते हैं तब विवेकी प्राणी प्रेम के रंग का अनुभव करता है । स्त्री की इच्छा पूरी नहीं होने पर कितने ही
१ इसका यह मतलब नहीं है कि वे मोहकारक नहीं हैं। अच्छे । पदार्थों को देखने से अच्छा और खराब पदार्थों को देखने से खराब असर तो हृदय पर होता ही रहता है । २ उपदेशमाला गाथा १४४.