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फिर तेजवीर्य चला जाता है तब कादव जैसे दर्पण को ढक लेता है उसी प्रकार कर्म ज्ञान को ढक लेते हैं, परन्तु जो बहुत प्रयास कर के सब कचरा हटाया जावे तो अनादि शुद्ध स्वरूप प्रगट हो जायगा । आत्मा का रूप एक ही है, परन्तु कर्मावृत्त होने पर यह विविधरूप धारण करता है।
__इस प्रकार अनादिकाल से भावरित स्वरूपवाने आत्मा को दूसरा कोई अपना नहीं और कोई पराया नहीं, उसी प्रकार कोई इसका शत्रु नहीं और कोई इसका मित्र नहीं। इसका खुद का है वह यह ही है । माता, पिता, स्त्री, पुत्र आदि सब अनेक प्रकार के सम्बन्ध में अनन्तवार आते रहते हैं और इससे वे अपने नहीं कहलाते । अपने हों तो यहां रह ही क्यों जावें ? अतः ऐसे क्षणिक सम्बन्ध को अपना या पराया समझना, यह गलत है। इसके विषय में शास्त्रकार कहते हैं कि:
न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुया जत्थ, सव्वे जीवा अपंतसो॥ .
ऐसी कोई जाति नहीं, ऐसी कोई योनी नहीं, ऐसा कोई स्थान नहीं, न ऐसा कोई कुल है कि जहां सर्व जीव अनन्तवार न जन्मे हों और अनन्तवार न मरे हों। मतलब यह है कि सब स्थानों में सब सम्बन्धों में यह जीव अन्तवार उत्पन्न हुआ है । अनन्तकाल चक्र का मान देखिये और साथ ही साथ विचार कीजिये कि इस जीवने अनन्त पुद्गलपरावर्तन किये हैं, जिससे यह हकीकत स्पष्टतया
१ एक पुद्गलपरावर्तन में कितना काल लगता है उसका ख्याल करना कठिन है। करोड़ों या अरबों वर्षों से उसका नाप नहीं होसकता है । उसको ख्याल करने के लिये सूक्ष्म अर्द्ध सागरोपम का स्वरूप देखिये ( लोक