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फर्ज है ? है तो कैसा है ? आदि बातों के विचार करने की भावश्यक्ता अनेक बार पुनरावर्तन करके समझने की आवश्यक्ता है । इसप्रकार जब आत्मनिरीक्षण करने की टेव पड़ जायगी तब वस्तुस्वरूप बराबर समझ में आ जायगा । यह जीव विचार किये बिना-धर्मबुद्धि से भी कई बार प्रज्ञानदशा में बड़े २ पाप कर डालता है; इसका कारण यह है कि कोई भी कार्य करके, इसका क्या परिणाम होगा, इससे कितनी आत्मिक हानि हुई और अपनी खुद की कितनी अवनति हुई तथा गुण से कितना पतन हो गया, इन सब को तोलने की इस जीव को टेव नहीं है। कितने ही सुकृत्य इसप्रकार अल्प फलों के देनेवाले होते हैं। कितने ही सदुपदेश इस जीव को संकेत करके किये हुए होने पर भी निष्फल हो जाते हैं और हृदयभूमि के पटल पर होकर गुजर जाते हैं, परन्तु हृदय पर किन्चितमात्र भी प्रभाव नहीं डाल सकते । इस सब का कारण एक ही है कि इस जीव को आत्मविचारणा की टेव नहीं है । आत्मविचारणा करनेवाले अपने प्रत्येक कार्य को खोज सकते हैं; और कार्यक्रम में कितनी चूक है, मेल कितना है और दोष कितना है इसको भी ढूंढ़ कर दूर कर सकते हैं। आत्मनिरीक्षण करनेवाले सर्वदा जागृत रहते हैं और कभी भी अपनी शक्ति का नाश नहीं करते हैं । ऐसे अनेकों कारणों से अात्मविचारणा से अनेक प्रकार के लाभ होते हैं, तो फिर
१ 'आत्मनिरीक्षण के विषय पर श्रीजैनधर्मप्रकाश मासिक पुस्तक १८ में पृष्ट १०० से प्रारम्भ होनेवाला एक लेख इस श्लोक को लेकर लिखा गया है, उस की ओर ध्यान आकर्षित किया जाता है। प्रन्थगौरक के भय से वह लेख यहाँ नही लिखा गया है ।