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और मेरा इस मोह ( राग-द्वेषलक्षण ) मंत्र से जगत् बंधा हो गया है।" इसीप्रकार भर्तृहरि कहते हैं कि " पीत्वा मोह. मयी प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् " मोह से भरी हुई प्रमादमदिरा पी कर यह जगत पागल हो गया है । मोह इस प्रकार इस जीव पर अनेक प्रकार के भय लाता है जिसके कारण का विचार कीजिये । बीसवें श्लोक में यह बतलाया गया था कि यह जीव कौन अपना है और कौन पराया है इसको नहीं जानता । यह सत्य है ? बहुत से पुरुष अनेकों वस्तुओं को अपनी हैं ऐसी मानते हैं, परन्तु इसमें भूल यह होती है कि अपनी वस्तु नहीं उसे अपनी मान बैठते हैं, और अपना अनन्त द्रव्य जो सदैव साथ रहता है, संनिधि में ही है और जिसको ढूंढने की आव. श्यकता नहीं, उसको वे नहीं देखते हैं, जानते भी नहीं और श्रम में भटकते रहते हैं । यह जो स्व-पर की बुरी लत पड़ी है, इसका क्या कारण है ? यह लत पटकनेवाला कौन है ? इसका विचार करो। ' यह द्रव्य मेरा है, यह स्त्री मेरी है, यह घर मेरा है ' ऐसा दिखानेवाला राग है-- यह मोह है-यह मदिरा है । " यह घर दूसरे का है, यह लड़का दूसरे का है, इस वस्तु का नाश हो गया जिसकी कुछ परवाह नहीं, क्योंकि यह मेरी नहीं है" इसप्रकार दिखानेवाला द्वेष है. यह ही मोह है-यह ही मदिरा है । इसीप्रकार मद से, ईर्षासे, अहंकार से, लोभ से स्वपर का विभाग होता है यह सब मोहजन्य है । मोह का मार्ग जगत को अन्धा बनाकर काम करने का है और शराब की तरह यह प्राणी को उन्मत्त बना देता है । सारांश में कहें तो पौद्गलिक वस्तुओं का स्वपर विभाग योहजन्य है ।
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१ वैराग्यशतक श्लोक ७ वां ।