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हे चेतन ! ऐसी जागृत के आचार ( व्यवहार ) को तूं क्यों छोड़ देता है ? यह व्यवहार छोड़ देने से बहुत हानि होती है, कारण कि ऐसा करने से तेरा साध्य उससे दूर होता जाता है ।
रागद्वेष से किये विभाग पर विचार निजः परो वेति कृतो विभागो,
रागदिभिस्ते त्वरयस्तवात्मन् । चतुर्गतिक्लेशविधानतस्तत्,
प्रमाणयन्नस्यरिनिर्मितं किम् ॥ २२ ॥ . " हे चेतन् ! तेरा अपना और पराया ऐसा विभाग रागद्वेषद्वारा किया हुआ है । चारों गतियो में तुझे अनेक प्रकार के क्लेश पहुंचानेवाले होने से राग-द्वेष तो तेरे शत्रु हैं। तेरे शत्रुओं से किये हुए विभाग को तूं क्योंकर स्वीकार करता है ? ॥२२॥"
उपजाति भावार्थ:-श्रीमद्यशोविजयजी महाराज अष्टक में लिखते हैं कि " अहं ममेति मंत्रोऽयं मोहस्य जगदाध्यकृत् " " मैं
१ आचार शब्द का अर्थ कितने ही पंचाचार करके उसे भवान्तर के लिये अनन्त सुख का साधन बतला कर उस अर्थ को यहां घटित करते हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप पंच आचारों का भगवंतने उपदेश किया है और उन को अप्रमत्तरूप से पालन करने का यहां उपदेश किया गया है । इसप्रकार किया हुअा अर्थ अनुचित नहीं है, परन्तु मुनिसुन्दरसूरि महाराज यतिशिक्षाउपदेश के सिवाय सम्पूर्ण ग्रन्थ जैसे बन सके वैसे पारिभाषिक न होने देने का यत्न किया हो ऐसा प्रतीत होता है । और इसलिये सामान्य अर्थ हो सकता हो वहाँ विशेष अर्थ न करने की पद्धति मुझे विशेष अनुकूल जान पड़ती है ।
२ ज्ञानसार अष्टक ४ श्लोक ।