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इस धार्मिक प्राचार को तू क्यों छोड़ देता है ? " || २६ ।।
___उपजाति भावार्थ:--वस्तुस्वरूप और सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त करने की भावश्याका कितनी अधिक है यह ऊपर बताया गया है, फिर भी उसीका विशेषरूप से प्रतिपादन करने का उपदेश करते हैं । समझदार व्यवहारकुशल पुरुष किसी भी वस्तु को खरीदते समय दो बातों को देखते हैं । प्रथम तो यह वस्तु टिकाउ होनी चाहिये और दूसरी यह वस्तु उपयोगी होनी चाहिये । अपने खुद के आत्मिक व्यवहार में इस नियम का भंग होता दिखपड़ता है और वह भी एक या दो बातों में नहीं, किन्तु सम्पूर्ण व्यवहार ही उल्टी ईट से बना हुआ जान पड़ता है । दृष्टान्तरूप अपने को योवनकाल के सुख भोगने में आनन्द आता है; किन्तु उन सुखों के अन्त में वृद्धावस्था का दुःख है और वह सुख होता है सो भी बहुत थोड़े समय के लिये होता है । धन मिलता है तब सुख होता है, परन्तु उसका नाश होता है तब दुःख होता है; स्नेही को देख कर मानन्द होता है, परन्तु उसके मरण से शोक होता है-इसप्रकार सब पौद्गलिक वस्तुओं के परिणाम में दुःख है, इतना ही नहीं परन्तु आनन्द भी अल्प समय का ही है। ( वस्तुतः तो इसको आनन्द कह ही नहीं सकते )। अपितु थोड़े काल के सुख के लिये बहु काल के सुख को खोना पड़ता है, अतः व्यवहारकुशल पुरुष को विचार करने की भावश्यक्ता है । तूं कौन है ? तेरा कौन है ? तेरा क्या कर्तव्य है ? ये सब वस्तुएँ तेरी किस तरह से हैं ? उनका तथा तेरा क्या सम्बन्ध है ? तेरा अन्य प्राणियों की ओर तथा अन्य वस्तुओं की ओर क्या