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जानता है । तेरा तात्कालिक हित दिख पड़ता हो किन्तु उसके परिणाम में तुझे अहित होता हो तो वह आदरने योग्य नहीं, यह कहने की आवश्यकता नहीं। इससे भी अधिक तेरा क्या है और पराया क्या है यह भी तूं बराबर नहीं समझता । तूं कौन है ? तूं शरीर नहीं, कपड़ा नहीं, आभूषण नहीं; किन्तु कोई और ही है। शरीर को गति में रखनेवाला, कपड़ा पहननेवाला, आभूषण धारण करनेवाला कोई दूसरा ही है । वह
आत्मा है, वह तूं है । इसकी वस्तु आत्मिक वस्तु कहलाती है बाकी घर, कपड़ा, गहना, पैसा और शरीर सब दूसरे हैं,
और अज्ञानता से उनको तूं तेरे मान बैठा है; परन्तु इसमें तू बड़ी भारी भूल करता है । पौद्गलिक पदार्थ सर्वथा दूसरे ही हैं, वे साथ में नहीं जाते और लाखों समय रहते भी नहीं । तेरे हैं सो तो तेरे रूप ही हैं, तेरे पास ही हैं, तेरे से भिन्न नहीं हैं । यह विवेक जब तेरे में हो जायगा तब तुझे वस्तुस्वरूप का सच्चा भान भी हो जायगा और फिर तुझे बड़ा भानन्द मिलेगा । अनंत ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही तेरे हैं और वे ही तुझे परिणाम में हित करनेवाले हैं, बाकी सब वस्तुएँ दूसरी हैं और परिणाम में अहित करनेवाली हैं।
वैद्य के पास रोगी आदमी जावे तो पहले तो वह उसे कौनसी बिमारी है इसका निदान करता है, व्याधि के कारण को मालूम करता है और क्या व्याधि है उसका वह निर्णय करता है । तुझे विभावदशा में आनंद-उपभोग करनेरूप व्याधि है
और उससे मुक्त होकर तूं सुख मिलने की इच्छा रखता है, तो उसके कारण को ढूंढ़ । जबतक इसके कारण को तू नहीं जान