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होना गुणों की ओर प्रेम होना प्रगट करता है, और ये सब लक्षण जिसमें हों उसे शास्त्रकार ज्ञानी कहते हैं। द्रव्यानुयोग के कुछ ग्रन्थ पढ़लेने से अथवा युनिवर्सिटी की कुछ हिप्रियें प्राप्त कर लेने मात्र से कोई सच्चा ज्ञानी नहीं हो सकता । ज्ञान के साथ वर्तन भी शुद्ध होना चाहिये । बुद्धि के क्षयोपशम से थोडासा स्वरूप ज्ञात हो जाने मात्र से अहंकारी बनजाना उचित नहीं, कारण कि ज्ञान का फल उसका आचरण ही है और बिना फल का ज्ञान केवल शोभामात्र है, परन्तु वास्तविक लाभकारी नहीं । केलवणी का परिणाम यही होना चाहिये और समझदार प्राणी इसीका अनुसरण करते हैं ऐसा हम कई बार पढ़ते हैं । ज्ञानी का लक्षण साधु और श्रावक के लिये एकसा है, अतः जो सचमुच ज्ञानी बनने का दावा करते हों उनको इस श्लोक में बतायेनुसार
आचरण करना अत्यावश्यक हैं । वस्तुस्वरूप जानने का यह तीसरा उपाय अमल में लाने से समता प्राप्त होती है और वह चितवन विशेष जानकार को ही होता है अतः समताप्राप्ति की इच्छा- . वाले तत्त्वजिज्ञासु को-चाहे वह साधु हो या श्रावक उसको
आत्म प्रशंसा नही करना चाहिये, दूसरे करें ऐसी भी इच्छा नहीं रखना, यदि दूसरे करें तो भी उससे आनंदित नहीं होना
और दूसरों के अणुमात्र गुणों को भी बहुत बड़ा समझना, उनकी प्रशंसा करना और दुसरे प्राणी उसकी प्रशंसा करें तो उस को सुन कर खुश होना चाहिये ।। १९ ।।
अपने शत्रु मित्र-स्वपर को देखने का उपदेश न वेत्सि शत्रुन् सुहृदश्च नैव,
हिताहिते स्वं न परं च जंतोः। १ जंतो इति वा पाठः संबोधने ।