________________
दुःखं द्विषन् वांछसि शर्म,
चैतन्निदानमूढः कथमाप्स्यसीष्टम् ॥२०॥ __ " हे प्रात्मन् । तूं तेरे शत्रु और मित्र को नहीं पहचानता है कौन तेरा हितकर और कौन तेरा अहितकर है इसको नहीं जानता है और कौन तेरा अपना तथा पराया है यह भी नहीं जानता है; ( और ) तू दुःख पर द्वेष करता है और सुख मिलने की इच्छा करता है, परन्तु उनके कारणों को नहीं जानता फिर तूं क्योंकर अपनी इच्छित वस्तु पासकेगा ?" ॥२०॥
उपेन्द्रवन भावार्थ-एक साधारण नियम है कि शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिये उसे बराबर जानना चाहिये और उसकी शक्ति का विचार करना चाहिये । ट्रान्सवालनिवासी बोर लोगों का पूरा विचार न करने से अंग्रेज सरकार को प्रारम्भ में अनेकों कष्ट सहन करने पड़े थे। तूं तो यह भी नहीं जानता कि तेरे शत्रु कौन हैं ? फिर वे कैसे हैं यह जानने को तो तुझे अवकाश ही कैसे हो सकता है ? राग, द्वेष अथवा तज्जन्य कषाय, वेदोदय, मोह अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग तेरे शत्रु हैं और उपशम, विवेक, संवर आदि तेरे मित्र हैं। इन सब को बराबर समझ और इन प्रत्येक की तेरे विरुद्ध या तेरे साथ कितनी शक्ति है, उसका विचार कर । इस प्रकार शत्रु मित्र को जानने से तूं आत्मगुणव्यक्तिकरण रूप सोने की खानों को शिघ्र ही प्राप्त कर सकेगा। _अपितु तेरे हितेच्छु कौन हैं, और कैसे हैं ? और अहित करनेवाले कैसे हैं और कौन हैं ? वह भी नहीं