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ऐसे मनुष्य पर क्रोध करने से तुझे क्या लाभ है ? सर्व जीव अपने २ कर्मानुसार कार्य करते हैं, उन पर क्रोध करना व्यर्थ है कारण कि तेरे क्रोध करने से वे प्राणी अपने पापकृत्यों से बाज नहीं आ सकते । जीव को जब पापानुबंधी पाप अथवा पापानुबंधी पुण्य का उदय होता है तब दुःख अथवा सुख को अनुभव करते हुए अनुक्रम से उपर लिखेनुसार कृत्यों के करने की इच्छा होती हैं। यह कर्म का शासन है। यदि उन को सत्पथगामी बनाने की तेरे में शक्ति हो तो उस के द्वारा तूं उन को समझा, उनको उपदेश कर, तथा उनका तूं हितेच्छु है ऐसा उनको बतला; किन्तु यदि तेरे में वैसी शक्ति न हो तो तूं अपनी ही परवाह कर । तूंने सम्पूर्ण दुनिया को सुधारने का ठेका तो लिया ही नहीं है। प्रयत्न कर के जीव को सत्पथगामी बनाने का करुणा भावना में समावेश होता है; परन्तु जब तक वह रास्ता तेरे लिये न खुला हुआ हो, अर्थात् तेरे में परोपकार करने की शक्ति न हो, अथवा भरसक उपदेश करने पर भी जिसको उपदेश किया जावे वह पुरुष सच्चे रास्ते पर अपने महापापोदय से आ ही न सकता हो तो फिर तेरा उसकी तरफ उपेक्षा भाव रक्खना ही अधिक उत्तम है । कितने ही प्राणी तो ऐसे होते हैं जो तत्त्वका स्वरूप ही नहीं समझते और कितने ही न समझने का निश्चय किये हुए होते हैं। ऐसे प्राणियों पर उपेक्षा रखना ही अधिक उत्तम है। ऐसा
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१ सर्व जीवों की और मैत्रीभाव रखना यह प्रथम कत्तय॑ है, इस में भी जो जीव दुःखी हो उनको दुःख में से छुडाने का विचार करना करुणाभाव है। प्रयत्न करनेपर भी हित होने की सम्भावना न हो तो उदासीनता रखना चाहिये । प्रमोदभावना भिन्न विषय की ओर जाती है ।