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इस प्रकार उदासीनता अमृत है और संतपुरुष इस अमृतरस का बारंबार स्वाद लेते हैं ऐसे उच्च आनन्द की तरंगों में रहनेवाले जीव इस जन्म में ही मुक्तिसुख को भोगते हैं । यह भावना पुरुषार्थ करने से मना नहीं करती किन्तु पुरुषार्थ करने के पश्चात् जब परिणामरूप में निष्फलता प्राप्त हो तब कई बार दूसरे प्राणी पर जो क्रोध उत्पन्न होता है उस पर विजय प्राप्त करना इस भावना का विषय हैं।
मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य ये चार धर्मध्यान की भावनायें हैं। इन भावनाओं के भाने से जीव आर्त-रौद्रध्यान में से मुक्त होकर धर्मध्यान में प्रवेश करता है । इन चार भावनाओं के भाने पर मन स्थिर हो जाता है और समता आती है। इन भावनाओं के भाने से मन में अनिर्वचनीय आनन्द होता है। इस आनन्द की उपमा इस स्थूल सृष्टि में किसी पदार्थ से नहीं दी जा सकती । ये चारों भावनायें उपरोक्कानुसार समता के अंग हैं तथा समता को स्थिर करनेवाली हैं । शान्तरस प्राप्त करने के निमित्त इस भावनारूप जल को बारंबार पीना चाहिये। अभ्यास होजाने पर रास्ता सरल हो जायगा । यह भावना का संक्षिप्त स्वरूप बताया गया है, विशेष स्वरूप जानने की उत्कण्ठा हो तो अन्य ग्रन्थों में इस का स्वरूप देखिये । वरना इसके सच्चे स्वरूप का तो इस भावना को भाने पर ही अनुभव होगा। इस भावना के भाने पर कदाच आरम्भ में तो मनःक्षेत्र संकोचवाला जान पड़ेगा किन्तु धीरे २ वह विस्तृत होता जायगा । समता का दूसरा साधन-इन्द्रिय विषयों पर समता.
चेतनेतरगतेष्वखिलेषु, १ स्पर्शरूपरवगंधरसेषु ॥