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कईबार दूसरे प्राणियों के हित करने से इस जीव को क्लेश होता है और कई बार खोटी चिन्ता किया करता है । कार्य करना तो ठीक है किन्तु उसकी चिन्ता करना व्यर्थ है, कारण कि दूसरे पुरुष को कर्मविवर कब किया जावें इसका हम को भास न होने से हम प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते, और इस का फल क्या होगा। इसकी हमको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार असत्य बोलनेवाले तथा अप्रमाणिक कार्य करनेवाले पर द्वेष करना व्यर्थ है क्योंकि इससे दोनों में से किसी को भी लाभ नहीं होता । हितोपदेश के माननेवाले पर भी द्वेष न करना । विचा. रना कि अभी उसको पूरा अनुभव नहीं हुआ। देवगुरुधर्म की निन्दा करनेवाले पर क्रोध करना तो अनुभव की ही बात है । इतिहास में भी अनेकों दृष्टान्त हैं, किन्तु शास्त्रकार तो कई अंशो में ऐसा करने से भी मना करते हैं। तूं हो सके तो उसको शुद्ध स्वरूप समझा, फिर क्या होता है उसको देख । फिर भी यदि न समझे तो तूं ऐसा विचार न ला कि तेरा प्रयास निष्फल हुा । तूंने तो तेरा कर्तव्य बजाया है। तूं फिर विचारना कि उस बेचारे को अभी भटकना बाकी है, जिससे वह सच्चा मार्ग नहीं देख पाता । यह बात तूं ध्यान में रखना जिससे तुझे क्रोध न होगा और सदैव शान्ति रहेगी। श्रीशांतसुधारस में कहा है कि:
तस्मादौदासीन्यपीयूषसारं, . वारंवारं हंत संतो लिहंतु । आनन्दानामुत्तरंगत्तरंगै वद्भियद्भुज्यते मुक्तिसौख्यम् ॥ .....