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है। चणिक इन्द्रियसुख को कब्जे में रख कर उनके विषयों से होनेवाले सुखदुःख पर सामान्य भाव रखने का यहां उपदेश किया गया है । यह समताप्राप्ति का दूसरा साधन है। मात्मशिक्षा-विचार करने की भावश्यक्ता
समताप्राप्ति का तीसरा साधन. के गुणास्तव यतः स्तुतिमिच्छस्यद्भुतं,
किमकृथा मदवान् यत् ॥ कैर्गता नरकभीः सुकृतैस्ते,
किं जितः पितृपतिर्यदचिन्तः ॥ १८॥
'तेरे में क्या गुण हैं कि हूं स्तुति की इच्छा रखता है ? तूंने कौन सा बड़ा भाश्चर्यकारी काम किया है कि तूं अहंकार करता है ? (तेरे ) किन सुकृत्यों से तेरी नरक की पीड़ा दूर हो गई है ? क्या तूने यम को जीत लिया है कि जिससे तूं चिन्ता रहित हो गया है ? ॥१८॥' स्वागतावृत्त.
भावार्थ:-समताप्राप्ति का तीसरा साधन वस्तुस्वरूप तथा प्रात्मस्वरूप को विचारना है । जब प्रात्मा क्या है और उसका तथा पुद्गल का क्या सबन्ध है, कब तक साथ रहनेवाले है ? भादि का विचार योग्य रीति से करने में आवे तब मन में शान्ति होती है और निकाम व्यवसाय कम हो जाता है । समताप्राप्ति का यह उत्कृष्ट अंग है। इस अंग के समर्थन में अनेक श्लोक हैं तथा अध्यात्मशास्त्र इस विषय की ही पुष्टि करता है । अनेक प्रकार से वस्तुसम्बन्ध जानने का यहाँ प्रयास किया गया