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नेवाले नहीं होते थे। क्या विरभूमि काच उत्पन्न करती है ? तदुपरान्त गच्छमें कैसे विद्वान थे उनके विषयमें उपर लिखे अनु सार अन्तिम २५ श्लोकोंके देखनेसे मालूम हो जायगा । यह ही हकीकत प्रतिष्ठासोम सोमसौभाग्यकाव्यके दशवें सर्गके ६५ वें 'लोकमें लिखते हैं। श्रीसोमोदिमसुन्दरस्य सुगुरोः श्रीमद्गणे सद्गुणे, मोहद्रोहकथाप्रथा न हि मनाक् नैव प्रमादच्छलम् । नो वार्ताप्यनृतस्य तस्य विकथानामापि न श्रूयते, राज्यं प्राज्यमनुत्तरं विजयते श्रीधर्मभूमीशितुः ॥ __ " श्रोसोमसुन्दरसूरिके श्रीमान् सद्गुणी गच्छमें मोह और द्रोहकी कथा नहीं थी, प्रमाद तथा छठ बिलकुल नहीं था; अस. त्यकी बात ही नहीं थी और विकथाको तो नाम भी सुनाई नहीं देता था; उसमें तो केवल धर्मराजका अनुपम बड़ा विशाल राज्य विजयवंत वर्तता था" ऐसे ऐसे अनेकों चित्र ग्रन्थकारने खीचे हैं । इससे कदाच अतिशयोक्ति हो तो भी सामान्यतया जैनगृहस्थों. की और साधुवर्गकी स्थिति संतोषकोरक थी ऐसा जान पड़ता है। श्रावक भी गुरुओंकी ओर दृढ़ भक्तिवाले होंगे ऐसा प्रतीत होता है । गुणराज, देवराज, विशाल, धरणेन्द्र, नींब आदि शेठोंने गुरुकी जिन शब्दोंमें स्तुति कर अपनी लघुता बतलाई है और अपूर्व महोत्सवसे सूरिपदवीकी प्रतिष्ठा कराई है वह चारित्रधर्मकी ओर और गुरुकी ओर लोगोंका बढ़ अनुराग बतलाता है। गच्छपति अथवा गणाचार्यकी आज्ञा सब बहुमानसे उठाते थे ऐसा भी अनेक रीतिसे निर्णीत होता है । साधुत्रोंमें विहार करनेकी बहुत टेव थी और सोमसुन्दरसूरि जैसे आचार्य भी एक स्थानमें नहीं रहते थे ऐसा सोमसौभाग्यकाव्यके पढ़नेसे बारम्बार ज्ञात होता है। इससे यह भी प्रतीत होता है कि श्रीवकोंके सम्बन्धमें यह मेरा श्रावक है ऐसा भी बहुत कम होता होगा । आचार्यका अमुक ग्राममें पाट (मुख्य स्थान Head-quarters ) हो और उसके प्रासपास ही आचार्य रहते हों ऐसी योजना भी पढ़ने में नहीं आती है । शत्रुञ्जय गिरिराजकी यात्राकी महिमा, उस समयमें जाने धानेके साधन बहुत अल्प, महँगे तथा खरतरनाक होनेपर भी, बहुत थी पेसा तीन बार बहुत आडम्बरसे निकाले हुए संघके