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होने पर मन शुद्ध हो कर जिस आत्मा जागृति का अनुभव करता है उसे स्वयं अनुभवरसिक ही जान सकता है; अन्य कदापि नहीं । शान्तरस इस भव तथा परभव सम्बन्धी अनन्त आनन्द की प्राप्ति का साधन है । शान्तरस की भावनावाला इस . भव में मानसिक एवं शारीरिक दोनों प्रकार के आनन्द का उपभोग करता है । उसका मानसिक आनन्द तो इतना उच्च श्रेणी का होता है कि इसके लिये प्रथम ही विवेचन में बतलाया गया है कि शान्तरस अमृतरस है। एक दंतकथा प्रचलित है कि देवताओं को चोदह रत्नों की खोज में कठिन परिश्रम करना कड़ा, समुद्र का मथन करना पड़ा तब कहीं बडी कठिनता से उनको अमृत प्राप्त हुआ । आचारांगादि ग्यारह अंग (मूलसूत्र), पूर्वाचार्यविरचित योग, अध्यात्म, धर्मशास्त्र आदि अनेक विषयों के प्रतिपादन करनेवाले उपांग, पयन्ना और प्रकरण आदि अनेक ग्रन्थ समुद्ररूप हैं और शान्तरस इस महान् समुद्र में से अत्यन्त परिश्रमद्वारा मथन कर निकाला हुआ अमृत है । इसके ढूंढने में अत्यन्त पुरुषार्थ एवं बुद्धिमान् पुरुष की आवश्यकता होती है । इससे यह स्पष्ट है कि यह रस कितना उत्कृष्ट है? । इसके विषय में
और अधिक दलीलें पेश न कर इतना ही कहना बस होगा कि शाम्तरस सर्व गंभीर धर्मशास्त्ररूप समुद्र को मथन कर निकाला हुआ 'सार' 'नवनीत' 'माखन' है। अब यह कितना उपयोगी होगा यह पाठक स्वयं विचारें, तथापि इसके समर्थन में तीन विशेष कारण बतलाये गये हैं। वे भी इतने ही उपयोगी हैं नितना यह, अतः अब हम उन्हीं पर विचार करते हैं ।
१ यह दंतकथा लौकिक है, किन्तु इसके रूपक करते समय इसके उपयोग से शास्त्र में कुछ भी बाधा नहीं पाती है।