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यद्वद्विषघातार्थ मंत्रपदे न पुनरुक्तदोषोऽस्ति। . तद्वद्रागविषघ्नं पुनरुक्तमदुष्टमर्थपदम् ॥ ..
" तीर्थकरमहाराज प्रणीत और उनके पचात् अविछिम सम्प्रदायागत प्राचार्यों से बतलायें-कथन किये मानों का वारंवार कथन करना वह उस-प्रशम की रति का पुष्टि करनेवाला है । विषघात के लिये जिस प्रकार वारंवार मंत्रो धारण करने में पुनरूक्ति दोष नहीं होता है उसी प्रकार राग. रूप विषघातक अर्थपदों का भी वारंवार कहना कार्य-दोष रहित है।"
__ संपूर्ण प्रन्थ में एक भाव को ही दो दो बार या किसी २ भाव को इस से भी अधिक वार प्रगट किया जाता है, उपदेश के
अनेकों प्रन्थों के होनेपर भी फिर और ग्रन्थ लिखे जाते है यह • एक प्रकार की पुनरुक्ति है, किन्तु इस में काव्यचातुर्यता बताने का विशेष हेतु न होने से यह दोष रहित है । जिस प्रकार व्योपारी सदैव एक ही प्रकार का व्यौपार किया करता है किन्तु उस में उस की अभिलाषा व्यौपार की न होकर धनप्राप्ति की होती है, जिस प्रकार मंत्रपद बारंबार जप करने में श्रद्धागुण प्रधान होता है
और साध्य मंत्र की ओर न होकर विषनाशक की और होता है, और जिस प्रकार व्याधिग्रस्त प्राणी जो एक ही एक औषधि का अनेकवार सेवन करता है उस में उस का उद्देश्य औषधि सेवन का न हो कर व्याधि का विनाश करने का होता है इसी प्रकार शुद्ध व्यापार के अभिलाषी अथवा रागविष या मोहव्याधियों के नाश करने के अभिलाषी मुमुक्षु को यदि भनेक प्रकार से अनेकवार एक ही एक उपदेश किया जाय तो उसका साध्य वचनोचार या वचनव्यापार की ओर न होकर बाग.