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जो कर्म का चय करता है, तपस्या में विराजमान है, तथा तपशक्तिवाला है, वह निरुक्तिद्वारा 'वीर'कहलाता है।
व्युत्पत्ति से भी यही ध्वनित होता है। विशेषेण ईरयति प्रेरयति कर्माणोति वीरः जो कमों को प्रेरित करता है, धका बगावा है, मात्मा से खदेड़ कर भगा देता है वह ही वीर कहलाता है । ऐसे श्री वीर परमात्मा को नमस्कार कर मंगला. चरण किया गया है। ____टीकाकार महाराज श्री धनविजयजी गणी का कथन है कि शास्त्र के मादि में मंगल, अभिधेय, संबन्ध, प्रयोजन और अधिकार इन पांच वस्तुओं को बताना चाहिये, वह इस श्लोक में भी बतलाई गई है । वीर परमात्मा को नमस्कार करके मंगलाचरण किया गया है, अभिधेय अथवा विषय शान्तरस है, अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयोजन है, शान्तरस का विभाव्यविभावनभाव सम्बन्ध है और मोक्षार्थी प्राणी जो अन्तरंग शत्रुनों पर जय प्राप्त करना चाहते हैं वे इसके अधिकारी हैं।
यद्यपि ये पांचों वस्तुएँ गद्यबन्ध रचना में प्रथम ही बतलादि गई है जिस पर भी ये यहां फिरसे बतलाई गई है इस में पुनराति दोष होने का आक्षेप किया जा सकता है, परन्तु ध्यान रहे कि सजाय, ध्यान, तप, औषध, उपदेश, स्तुति, प्रयाण
और संतगुणकीर्तन में पुनरुक्ति दोष नहीं लगता है। प्रशमरति प्रकरण में कहा गया है कि:-- येतीर्थकृतप्रणीता भावास्तदनन्तरैश्च परिकथिता। तेषां .बहुशोऽप्यनुकीर्तनं भवति पुष्टिकरमेव ।।