________________
शान्तरस- प्रारम्भ
( मांगलिक ) जयश्रीरांतरारीणां लेभे येन प्रशान्तितः । तं श्रीवीरजिनं नत्वा, रसः शान्तो विभाव्यते ॥ १ ॥
" जिन श्री वीरभगवानने उत्कृष्ट शान्ति से अपने अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली हैं उन परमात्मा को मैं. नमस्कार कर शान्तरस की भावना करता हूँ. " अनुष्टुप् '
विवेचन - व्यवहार में शत्रुओं का नाश करने तथा उन पर विजय प्राप्त करने के लिये द्वेष, क्रोध और मान का आश्रय लेते हैं, परन्तु श्रीवीरप्रभु का मनोराज्य इतना विशाल था कि उन्होंने द्वेष का आश्रय न लेकर शांतिपूर्वक सर्व अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त किया । अंतरंग शत्रु मोहराजा के सेवक हैं, और 1 उन की सैना में विषय, कषाय, ज्ञानावरणीय आदि अनेक मण्डलियें हैं । मार्गानुसारी होकर विजय की अभिलाषा रखनेवाले को अन्तरंग सैन्य पथभ्रष्ट नहीं कर सकते हैं; अपितु तदन्तर तन्वश्रद्धारूप सम्यक्त्व के प्राप्त हो जाने पर जब देश से अथवा सब से विरति हो जाती है तब इन्द्रियदमन, आत्मसंयम क्षमाधारण, सत्यवचनोच्चारण, स्तेयत्याग, अखण्डब्रह्मचर्य और अधि
1
१ प्रत्येक पद में आठ अक्षर होते हैं । छवां गुरु जौर पांचवां लघु होता है । दूसरे और चोथे पद का सातवां ह्रस्व होता है । पहले तथा तीसरे का सातवा दीर्घ होता है ।