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मुल की तुलना की जा सके। शान्तरस की उत्कृष्ट रीति की भावना होने पर सर्व प्रकार के दुःखों का आत्यंतिक प्रभाव हो जाता है और फिर जो अविनाशी, अव्याबाध सुख प्राप्त होता है वह ही वास्तविक सुख कहलाता है।
इस उत्कृष्ट सुख प्राप्ति का साधन उपर कहे अनुसार शान्तरस का विचार करना और उसी को परम साध्य मानना है । शृंगार, हास्य, वीर आदि रसों में माने हुए इन्द्रिय-जन्य विषयसुख से कल्पित क्षणिक विनश्वर आनन्द होता है; परन्तु सञ्चा, चिरस्थायी, अंतरहित आनन्द तो शान्तरस की भावना ही से प्राप्त होता है । और उस शान्तरस को भावने का उपदेश यहां किया गया है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में इस को ही साध्य रक्खा गया है, अत: मननपूर्वक इस ग्रन्थ का अभ्यास करना सुखप्राप्ति के उपाय के बराबर है।
रसेन्द्र-रसेश्वर सिद्धान्त ऐसा है कि यदि देहावशान पश्चात् दूसरों से मानी हुई मुक्ति मिले तो वह अनुत्तम है, अतएव रसेन्द्र (पारा) खाकर शरीर को बनाये रखना ही उचित है। यदि शरीर तो नाशवान है ऐसी शंका उपस्थित हो तो उस के जबाब में इस सिद्धान्त के अनुयायी कहते हैं कि इस शरीर के अवशान होने पर हरगौरी सृष्टि में दूसरा शरीर प्राप्त होगा और वह अधिक शक्तिशाली होगा । उन को इस मत पर उपदेश करते हुए सूरि महाराज कहते हैं कि रसेन्द्र ( पारा ) भी यह शान्तरसाधिराज ही है । शान्तरस सब मंगलो का भण्डार है कारण कि सब मांगलिक्यमाला का इसी से विस्तार होता है । पंडित लोग ही इस उपदेश के योग्य पात्र हैं, वे ही इस शान्तरस की खूबी को समझ सकते हैं। मतः सूरि महाराजने बुध शब्द से