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विचार नहीं करते हैं । हरिभद्रसूरि महाराज कहते हैं कि-"परहितचिंता मैत्री " यह एक क्या हो उनम सूत्र है। अपने स्वार्थ के विचार करने के स्थान में परहितचिन्ता करने में अपूर्व आनन्द मिलता है और इससे स्वहित तो साभाविकतया ही सिद्ध हो जाता है । सम्पूर्ण संसार को स्वबन्धु समान समझनेवाले के मन में ऐसा विचित्र प्रकार का प्रेम होता है कि वह उस प्रेम से ही मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। ऐसे जीव के उच्चार एवं विचार भी अनुकरणीय होते हैं। श्रीविनयविज. यजी महाराज शांतसुधारस में कहते हैं कि:
या रागदोषादिरुजो जनानां, __ शाम्यन्तु वाकायमनोगुहस्ताः। सर्वेप्युदासीनरसं रसंतु,
सर्वत्र सर्वे सुखिनो भवन्तु ॥ " राग, द्वेष आदि व्याधिये जो प्राणी के मन, धन, काया के शुभ योगों को नाश करनेवाली हैं उन सब पर मिजय प्राप्त करो। अतः सब प्राणी वीतराग हो जावो, सर्व प्राणी उदासीन रस का पान करो और सब स्थान पर सब प्राणी सुखी बनो"। सम्पूर्ण संसार के सर्व प्राणी सुखी हों ऐसा कहने में न रक्खों जातिभेद, न रक्खों धनवान एवं गरीब का भेद, न रक्खों सम्प्रदाय भेद, न रक्खों सेव्य सेवक भेद, न रक्खों स्तुति एवं निंदा करनेवाले का भेद और न रक्खों स्थान, स्थल तथा भूमिका भेद । सम्पूर्ण संसार पर एक समान दृष्टि रखना मैत्रीभाव का उत्कृष्ट लक्षण कहलाता है। श्रीवृहतशीति में नगरवासी को, संपूर्ण श्रीसंघ को लोगों को, राजा को और सर्व प्राणियों को शान्ति हो आदि अभिलाषा दिखाई गई है। निम्नलिखित आशिर्वचन भी ऐसी ही गम्भीर अनि करता: