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कर्मबन्धन नहीं होते अपितु गुम प्रयास से निर्जरा अथवा शुभ कर्मवन्धन होता है। इस प्रथम नषण से स्वार्थ का त्याग प्रत्यक्ष है। 'दूसरे कोई दुःखी न हो' ऐसी बुद्धि रखना मैत्रीभाष कहलाता है। ऐसा विचार होना मन की महान विशालता का सूचक है। अनेक अथवा सर्व प्राणी अपने मुख की अमितामा करते हैं, किन्तु दूसरे प्राणी की क्या गति होगी इस पर विचार करने वथा जानने का प्रयास भी नहीं करते । विशाल संसार के सर्व जीवों पर मैत्रीभाव रखनेवाले सब को सुखी देखने में आनन्द मानते हैं तथा स्वयं तो किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का दुःख नहीं पहुंचाता । ' इस जगत कर्म से बचो' ऐसी बुद्धि भी ऐसे ही मनोराज्य में से प्रभुत होती है । दूसरों के हित की चिन्ता करना मैत्रीभाव कहलाता है। तीर्थकर महाराज की वीशस्थानक तप करते ऐसी इच्छा हो जाती है कि-"सर्व जीव करूं शासनरसी, ऐसी भावदया मन उल्लंसी" और इस उत्कृष्ट भावदया के परिणामस्वरूप तीर्थकरनामकर्म का बन्धन करते हैं । यदि सब प्राणी शासन में तल्लीन हो जावें तो फिर उनकी यह भवजंजाल मिट जावे और उनके महादुःखों का भी नाश हो ऐसी परार्थ साधने की उत्तम वृति होने पर ही वह सार्वभौम के देवेन्द्र से नमस्कार किये जानेवाले महान तीर्थकरपद को प्राप्त होते हैं। अतः मैत्रीभाव भावते समय मन कितना समता में स्थिर होता होगा यह बराबर जाना जा सकता है ।
मैत्रीभाव भानेवाले प्राणी बहुधा स्वसुख का बहुत
इस वचन में करुणाभाव प्राधान्य है यह सर्व जीवों प्रति लिखा गया है, इस लिये यह यहां पर प्रस्तुत है । इसका मुख्य विषय कृपा भावना का ही है।