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यह है कि उस का मैत्रीभाव केवल स्वधर्मानुयायियों की ओर ही नहीं है, किन्तु वह सम्पूर्ण संसार के सर्व मनुष्यों की भोर एकसा और उस में वर्ण, जाति तथा धर्म का भेदभाव नहीं है। इतना ही नहीं अपितु वह तिर्यंच-जानवरों--पक्षियों तथा जलचरों की ओर भी अपना रक्षणशील हाथ फैलाता है। इस से भी और अधिक आगे बढ़ कर एकेन्द्रिय, द्विन्द्रिय, त्रींद्रिय
और चतुरीन्द्रिय तक जाता है । छोटे से छोटे जीवों को भी किसी भी प्रकार का दुःख देना मैत्रीभाव के विरुद्ध है, किन्तु पंचेन्द्रिय पुरुष तथा तिथंच की ओर तो विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है । जैन शास्त्रकार वैरविरोध पर विजय प्राप्त करने का आदेश करते हैं। यह मैत्रीभाव का कारण है किन्तु इस का साध्यबिन्दु तो सर्व जीवों पर हितबुद्धि रखने में है और इसी से ' सव्वस्स जीवरासिस्स' यह गाथा कही गई है । यह मैत्रीभाव समता का अंग है और अधिक विस्तार से ज्यों ज्यों इस पर विचार किया जाता है त्यो त्यों इस गुण के विषय का क्षेत्र अधिक विस्तीर्ण होता जाता है, तथा इसी के साथ साथ आनन्द में भी उसी प्रमाण से वृद्धि होती रहती है। इस गुण की भावना को बराबर समझ कर इस पर मनन करने से अनेक प्रकार के लाभ होना सम्भव है ऐसा अनुमवियों का वचन है।
द्वितीय प्रमोद भावना का स्वरूप. अपास्ताशेषदोषाणां, वस्तुतत्त्वावलोकिनाम् । गुणेषु पक्षपातो यः, स प्रमोदः प्रकीर्तितः ॥१४॥