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क्या भेद है उसे समझ कर उस पर विचार करना उसको शास्त्रकार भावना कहते हैं । इस ..भावना को भाने से सच्ची स्थिर वस्तु क्या है उस का सत्यज्ञान हो जाता है। और उस ज्ञान के परिणामस्वरूप तदनुसार कार्य करने का निश्चय होता है तथा इस के भी परिणामस्वरूप वैसा कार्य भी किया जाता है । किसी भी कार्य के होने तथा करने का यह शुद्ध क्रम है
और विकास भी तदनुसार ही होता है । ऐसी भावनाएँ शास्त्रकार बारह या सोलह प्रकार की बतलाते हैं। इस का पूरा विवरण योगशास्त्र, प्रवचनसारोद्धार, शांतसुधारस आदि ग्रन्थों में बहुत विस्तार से किया गया है । इस प्रन्थ में भी भागे इस का सविस्तार वर्णन किया जायगा । यहां केवल यह कहना है कि वस्तु का स्वरूप समझना और उस में निरन्तर मन लगा कर भावना रखना । तेरे प्रत्येक कार्य में इन भावनाओं को न भूलना । तूं खाता हो, पीता हो, चलता हो, व्यौपार करता हो तथा धर्मकार्य करता हो, उस समय प्रत्येक वक्त तेरी इन भावनाओं को हृदयचक्षु सन्मुख रखना । ये भावनाएँ धार्मिक कार्य करते समय और विशेषतया स्वाध्याय ध्यान करते समय ही भाने की हैं ऐसा तूं ख्याल न कर, वरन् ये भावनाएँ तेरे प्रत्येक कार्य में जलकनी चाहिये ।
. अनादि अभ्यास के कारण संसार भावना इस जीव की स्वाभाविक दशा समान हो गई है। इसको घर बनाने में, गहने घड़ाने में तथा व्यापार करने में जितना आनन्द आता है
और जितना यह इन कार्यों में दत्तचित हो जाता है उतना यह संसार के वास्तविक स्वरूप विचारते समय नहीं होता, हो भी नहीं सकना, होने का विचार भी नहीं करता जिसके परिणाम