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उन को तो सब संयोगों में आनन्द ही आनन्द है । वे सुख से सुखी नहीं होते और दुःख से भी नहीं घबराते हैं। इतना ही नहीं अपितु कर्मक्षयनिमित्त दुःख को आवकारदायक गिनते हैं । वे जानते हैं कि सुख पुन्यप्रकृतियों का उदय है और दुःख पापप्रकृतियों का उदय है । दोनो कर्मप्रकृति है, त्याज्य है और इन में प्रानन्द या शोक मानना मूर्खता है। ऐसे महात्माओं को जो अन्तर-प्रानन्द होता है उस का वर्णन करना कठिन है, कारण कि उनको दुःख में भी आनन्द ही है । मानसिक उपाधियों के नाश होने पर शीघ्र ही सम्पूर्ण पार्थिव पीड़ाओं का भी स्वतः ही नाश हो जाता है और उदारचरित्र योगी.तो स्थिर मनोवृति रखकर मानसिक उपाधियों से दूर ही रहते हैं । उनके सम्बन्ध में भी नहीं आते उनके लिये तृण और सुवर्ण एक समान है, राय-रंक का भेद नहीं, निंदा-स्तुति में भेद नहीं, शत्रु. मित्र पर समभाव है और राजा जैसा उनका वैभव दिखाई नहीं पड़ता फिर भी वे राजा के जैसे वैभव का उपभोग करते हैं। इस सम्बन्ध में विरक्तभाव के सुख का अनुभव करनेवाले और संसार का भी अनुभव लेनेवाले राजर्षि भर्तृहरि संक्षेप में कहते है कि:
मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता, वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोयमनिलः । स्फुरद्दीपश्चंद्रो विरतिवनितासंगमुदितः, सुखं शांतः शेते मुनिरतनुभूतिनृप इव ॥
जिस प्रकार पुन्यवान अपनी खुद की इच्छाप्ति से सकल अनुकूल संयोगो में निश्चित होकर सोता है उसी प्रकार त्यागी पुरुष भी सकल क्लेश-तापों को सहन कर समाधि से