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बलवान हो जाता है। ऐसे ऐसे अनेकरूप विचित्र कमों के वशीभूत होकर यह जीव धारण करता है, संसाररूप-रंगभूमि पर अनेक प्रकार के खेल खेलता है और काल के उपस्थित होने पर यमराज की राजधानी के पर्दे में प्रवेश करता है और फिर अच्छा या बुरा दूसरा रूप धारण करता है-इसी प्रकार अनेक बार रग्गड़पट्टी किया करता है । दिनभर मन, वचन, काया के व्यापार में मस्त होकर विषयकषायों के आश्रित हो जाता है
और क्षणभर भी शान्ति नहीं लेता । कषायादिक में प्रवृति करते समय वह लीन हो जाता है और मानो स्वयं ही कषायमय हो ऐसा जान पड़ता है । इस प्रकार की अनेक योनी यह जीव धारण करता है और उस में ही सुख का अनुभव करता है, किन्तु ऐसी दौडादौड़ में सुख होता है या नहीं ? यह कहने से कल्पना कर लेना ही युक्त है । कारण कि निवृत्ति बिना सुख हो ही नहीं सकता । शिर पर दुःखरूपी तलवार लटकती हो वहां सुख हो ही नहीं सकता । यह संसारी जीव का सुख हुआ।
अब दूसरी ओर सब सुख दुःख पर माध्यस्थवृत्ति रखनेबाले, आत्माराम में रमण करनेवाले, यतिधर्म का वहन करनेवाले, पंचमहाबत का पालन करनेवाले, सांसारिक सर्व उपाधियों से दूर रहनेवाले, खटपट का स्वप्न में भी विचार न करनेवाले, पवित्र जीवन वहन करनेवाले श्री योगीमहात्मा, मुनिमहाराजा किस प्रकार के सुख का उपभोग करते हैं उसको देखिये । यह पहले ही बतादिया गया है कि सुख मान्यता में ही है, पुद्गल में नहीं और वास्तविक सुख तो साम्यभाव में ही है। उदार योगी जिनका स्वरूप नवमें श्लोक में विस्तृत रूप से कहा जायगा