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को, अथवा बहुत सुखी माने जानेवाले देवेन्द्र को भी समता सुख जैसा सुख नहीं है । शास्त्रकार भी कहता है कि:
जं च कामसुहं लोए, जं च दिव्वं महासुहं । वीयरायसुहस्सेयं, गंतभागंपि नग्घई ॥
लोक में जो विषयादिक के सुख हैं और देवलोक में जो महासुख हैं वे वीतराग के सुख के सामने अनंतमा भाग भी नहीं होते।
ऐसा महान सुख तुझे यत्न से साध्य है, यहीं तुझ को मिल सकता है, इस में न तो पैसों की आवश्यक्ता है, न बाहरी सहायता की आवश्यक्ता, न किसी के रक्षण की आवश्यका, न किसी तरफ से आकांक्षा की आवश्यक्ता है; एक मात्र तेरा क्या है उसको समझ कर उसके मिलने तथा प्रगट करने का प्रयास करने, और दूसरा दिखावटी बाह्य उपाधियों का परित्याग कर देने से ही समतामुख तुझ को अपने आप प्राप्त हो जायगा। परन्तु इसके लिये दृढ़ निश्चय करने के पश्चात् उसके साधन क्या हैं यह बतानेवाले तुझे स्वयं मिल जायेगें, वे साधन तुझे स्वतः मिल जावेगें और तुझे अत्यन्त आनन्द प्राप्त होगा । पौद्गलिक सर्व सुख नाशवंत हैं, पीछे दुःख-संतति छोड़ जाने वाले हैं, भोगते समय भी अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक उपाधि करनेवाले हैं। केवल यहां बताया हुआ समताजन्य सुख ही सर्व प्रकार के दुखों से मुक्त है अतः समता के सुखका आदर कर।
सांसारिक जीव के सुख-यति के सुख अदृष्टवैचित्र्यवशाजगजने, विचित्रकर्माश्यवाणूविसंस्थुले।