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. शांतरस की प्राप्ति से ऐहिक सुख होना तो प्रत्यक्ष ही है। इसकी प्राप्ति के लिये धनव्यय की, शारीरिक कष्ट सहन की, मानसिक चिन्ता उठाने की तथा दौडधूप हाय हाय करने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि इन सबका एक मात्र साधन शान्तरस ही है। कहा भी है कि:स्वर्गसुखानि परोक्षाण्य-त्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् । प्रत्यचं प्रशमसुखं, न परवशं न च व्ययप्राप्तम् ॥ - "स्वर्गसुख परोक्ष है और मोक्षसुख तो इस से भी अधिक परोक्ष है। प्रशमसुख प्रत्यक्ष है, इसकी प्राप्ति के लिये न धनव्यय की आवश्यकता है न यह परवश ही है। " कहने का तात्पर्य यह है कि इस भव में मिलनेवाला और अपना लाभ बतानेवाला प्रशमसुख ही है, जिसकी प्राप्ति का एक मात्र साधन शान्तरस है। इसी प्रकार परभव में भी अनन्त सुख की प्राप्ति करानेवाला शान्तरस ही है। यह जीव शान्त प्रवाह में बहता रहे तो इसे निकृष्ट कर्म की प्राप्ति नहीं होती है और पूर्वार्जित निकृष्ट कर्मों का भी नाश हो जाता है जिससे परभव में स्वाभाविकतया आनन्द मिलने की अधिक सम्भवना रहती है।
इस प्रकार शान्तरस केवल इस भव तथा परभव के आनन्द का ही साधन नहीं है अपितु अनन्त आनन्द-मोक्षसुख-जिसके पश्चात् किसी भी दिन निरानन्दपन प्राप्त न हो सके, उनका भी साधन शान्तरस ही है।
२. शान्तरस ही परमार्थिक उपदेश के योग्य है । अन्य सब रसों में पार्थिव विषय आते हैं । इन सब रसों में इन्द्रिय विषयों की तृप्ति और मन के निरंकुशपन के सिवाय वस्तुतः अन्य किसी भी आनन्द की प्राप्ति नहीं होती है। परन्तु शान्तरस