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१. शान्तरस इस भव तथा परभव में अनन्त आनन्द प्राप्तिका साधन है । इस से इस भव में मानसिक तथा शारीरिक दोनों प्रकार का आनन्द होता है। मानसिक आनन्द तो इतना उत्कृष्ट श्रेणि का होता है कि जिसका विचार करना मी हमारी बुद्धि के बाहर का विषय है । विना अन्य किसी व्यकि को कर हुंचाये आत्मा के कर्तव्यपालन से जो अनिर्वचनीय आनन्द होता है वह अनुभवगम्य है । यह आनन्द कितना होगा इसका विचार करते समय वाचस्पति श्री उमास्वाति महाराज के वचनों का स्मरण होता है:नैवास्ति राजराजस्य, तत्सुखं नैव देवराजस्य। यरसुखमिहैव साधो-लोकव्यापाररहितस्य ॥१८॥ ___" लोकव्यापार से रहित साधु को इस लोक में जो सुख है वह सुख चक्रवर्ती एवं इन्द्र को भी अलभ्य है । " इससे स्पष्ट है कि शान्तरस की भावनावाले के सुख की समता पौगलिक स्थल सुखवाले से कदापि नहीं हो सकती है। संसार की दृष्टि में राजा, महाराजा, सम्राट, सर्वभौम के चक्रवर्ती बहुत सुखी प्रतीत होगें, अथवा देवपति इन्द्र सुखी जान पडेगा, परन्तु लौकव्यापार से रहित साधु के सुख के सामने यह स्थूल सुख किसी गिनती में नही है। - इस प्रकार मानसिक सुख इस भव में अत्यन्त आनन्ददायक है । शारीरिक एवं मानसिक सुख में इतनी घनिष्टता है कि जहाँ मानसिक सुख होता है वहां शारीरिक सुख अवश्य होता है। आगे चल कर यह भी बतलाया जायगा कि सुख एवं दुःख दोनों का आधार हमारी मानसिक स्थिति पर है । अतः इन दोनों प्रकार के सुखों में मानसिक सुख ही मुख्य है।