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समान निर्मायक मण्डल न था । उस समय में साधुओंकी संख्या अधिक थी उसीप्रकार उनमें योग्य जीव भी अधिक थे अतपत्र सोमकुन्दरसूरिने अपने हाथसे पांच महारमाओंको सूरिपदले भूषित . किया था; परन्तु वे सब एक गच्छपतिको आशामें ही चलनेवाले थे । ऐसे विषमकालमें भी जो धर्म कायम रहा था सो ऐसे महास्माओंकी विशाल दीर्धष्टिसे ही रहा था, वरना उस समय पहिले
और पश्चात्के लगातार चारसौ वर्ष हिन्दुस्तानके लिये ऐसे विपरीत में थे कि धर्म शब्दका मूलसे नाश हो जाना ही सम्भव था । उस समय श्रावकवर्गकी स्थिति भी अच्छी होगी ऐसा सरिसदनीकी .... प्रतिष्ठा, जिनचैत्योकी प्रतिष्ठा और संघयात्राके महोत्सवोंसे जानी जोती है। यदि आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं होती तो ऐसे अद्भुत महोत्सव नहीं हो सकते थे । एक एक भाषक शासनका प्रभावक जैसा हुआ है ऐसा मुनिसुन्दरसूरि महाराज द्वारा गुर्माबलीमें किये हुए हेममंत्री और ललनापुत्र नाथाशामके पेनसे जान पड़ता है। वे प्रावक लगभग निःसंग जैसे, सानाद्य क्रियाके सम्बन्ध में प्रारम्भसे डरकर उसको न करनेवाले और मणको सहारा देनेवाले थे; ऐसे भामरोंके उत्पन्न होनेपर शासनके टिके रहने में कोइ नवीनता नहीं है। शासनके कार्य करनेमें बहुनमा स्वार्थभोग देना पड़ता है, परन्तु ये सब आत्मउमतिके हेतुके अपके लिये काम करनेवाले सहन करते हैं: क्योंकि उनका हेतु ऐहिक मानप्रतिष्ठा प्राप्त करनेका नहीं होता है। साधुवर्गमें उस समय महातपस्वी, वादीश्वर और अभ्यासी थे ऐसा गुर्वावली ४४७ के पश्चात्के दश श्लोकोंसे जान पड़ता है । इन्हीं श्लोंकोंसे ज्ञात होता है कि उस समय साधुओंमें क्रियाशिथिलता नहीं थी। श्रावकवर्गका बहुत शास्त्राभ्यास होना ग्रन्थसे नहीं जान पड़ता, परन्तु उस समयके श्रोतागण चतुर होगें ऐसा तो उपदेश रत्नाकर में दिये हुए उपदेश ग्रहण करनेवालोंके लक्षणोंसे ही पता चल जाता है । साधुधर्ममें कञ्चनकामिनाका त्याग तो सर्वप्रथम ही होना चाहिये । मूल पाटमें जबसे परिप्रहके मलबजाटने प्रवेश किया तब ही से उसका मान भी कम होने लग गया । परिमाहत्यामके सम्बन्धमें मुनिसुन्दरसूरि यतिशिक्षाके २४ से २८ तक के पांच श्लोकोंमें