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जो विचार बतलाते हैं वे विचार पूर्णतया हैं कि उस समयके मुनियोंमें परिग्रहका संभव बिलकुल न था । वे वृषभ, घोड़ा या ऊंट द्वारा पुस्तक या उपधि उठाकर लेजानेसे मना करते हैं और करनेवालेको अन्य भवमें वृषभ या घोड़ेका अवतार लेकर भार वहन कर प्रतिकार करना पड़ेगा ऐसा बतलाते हैं । इससे धनके सम्बन्धमें तो अब ओर कुछ कहना ही बाकी नहीं रहजाता है। धर्मके नामपर भी उपकरणादिके प्राकारमें परिग्रह न रखना चाहिये । उनपर मूच्र्छा रखना ही परिग्रह कहलाता है। इन सब विचारोंको विस्तारपूर्वक पढ़नेसे सिद्ध होता है कि वे परिग्रहको बाबतमें निर्दोष थं और 'यथा राजा तथा प्रजा' के अनुसार जैसा नायक होता है वैसा ही उसका अनुसरण करनेवाला वर्ग होता है, इससे स्पष्ट है कि साधुवर्गमें परिग्रहका प्रवेश होगविजय. सूरिके पश्चात् ही हुआ होगा । जिससे श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायके समयमें सत्यविजय पंन्यासको क्रियाउद्धार करनेकी पावश्यकता जान पडी। क्रियाउद्वार करते समय अनेकों बातोंमें सुधार किये गये थे परन्तु प्रधानतया कंचन और कामिनीका त्याग तो दृढरूपसे किया गया था । ऐसे क्रियाउद्धारके प्रसंग बारम्बार नहीं आते हैं अतएव श्रावकोंको शिथिलपनको उत्तेजन देने समय इस बातका खुब विचार करलेना उचित है। .
अब उपोद्घातको समाप्ति की जाती है । शान्तिसे परिपूर्ण और शांतिदायक ग्रन्थमें हमको प्रवेश करना है। यह एक सामा.
न्य ग्रन्थके रूपसे ऊपर ऊपरसे पढ़ने मात्रका नहीं वांचन विवेक है। इसकी हकीकतको पढ़कर, समझकर, हृदया.
गत करनेकी है और फिर उसका मनन तथा निदिध्यासन कर आत्माको अध्यात्मरूप बनानेका है । ऐसा होने पर ही इस ग्रन्थके पढ़नेका उचित लाभ होगा। अन्यथा एक नवीन ग्रन्थके समान ऊपर ऊपरसे यह देख लेने मात्रसे कि इसमें क्या लिखा है कुछ हानि नहीं तो वास्तविक लाभ भी नहीं हो सकता है । इसप्रकार पढ़ने का शोक दिनप्रतिदिन बढ़ता जाता है उससे बचनेके लिये यहां ऐसी सूचना कर देनी प्रासंगिक जान पड़ती है। उपोद्घातके साथ साथ शान्तरसकी रससिद्धिके लिये लिखनेका विचार था इससे उस विषयका विवेचन मंगलाचरणसे