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विशेष रुचि नहीं थी) अभाग्यसे इस विषयकी साती देनेवाले पन्द्रहवी शताब्दीके अन्य ग्रन्थ उपलभ्य नहीं है इससे इस विषयपर अधिक नहीं कहा जा सकता, परन्तु यतिशिक्षा अधिकार जिन शब्दोंमें लिखा गया है वह बतलाता है कि अध्यात्मिक जोवन अति उच्च स्थितिका तो कदापि नहीं था । इधरउधरकी हकीकतें भी इस बातकी साक्षी देती हैं । हिन्दुस्थानकी स्थिति उस समय में बहुत अव्यवस्थित थी। तुगलकवंशका राज्य था, कुछ समय पूर्व ही अल्लाउद्दीन खुनी जैसे खिलजीवंशके बादशाहोंने बुरे दिन दिखलाये थे और जानमालकी बिलकुल सलामत न थी। राज्यक्रान्ति भी बहुधा हुआ करती थी और मुहम्मद जैसा अयोग्य राजा राज्य करने लगा था ।
ऐसे राज्यक्रान्तिके समयमें जैन कौमकी और मुनिमहाराजाओंकी क्या स्थिति थी वह यहां जानने योग्य है। गच्छके भेद
जो ११ वीं और १२ वीं शताब्दीमें प्रारम्भ हुये साधु स्थिति. थे वे भी इस समय पूर्ण जोसमें फैल रहे थे।
ऐसा सोमसौभाग्यकाव्य द्वारा जाना जाता है कटे सर्गके दूसरे श्लोकमें लिखा है कि विश्वप्रसिद्ध सरिरूप सूर्य ( सोमसुन्दरसूरि ) ने जब आकाशमें वृद्धिको प्राप्त किया, तब ताराओंके समान' विग्रह करनेवाले अन्य सूरीश्वरोंका तेज आश्चयके साथ अदृश्य हो गया" स्वयं तपगच्छका बंधारण अच्युत्तम था ऐसा माननेके अनेकों कारण हैं और उनके कई सबूत भी मिलते हैं, जिनपर आगे विवेचन किया जायगा। ग्रन्थकर्ताका और लोगोंका उस समय गुरुकी ओर अपूर्व पूज्यभाव था ऐसा सोमसौभाग्यकाव्य और अध्यात्मकल्पद्रुमके गुरुशुद्धि अधिकारसे जाना जाता है । प्रथम ग्रन्थ वर्तमान स्थिति बतलाता है, जब कि दूसरा ग्रन्थ भावना ( Ideal ) बत. लाना है और भावना सदैव व्यवहारकी हदके अन्तर्गत रहकर ही बांधी जा सकती है। तपगच्छकी मूल पाटमें आगे जो धुन लगा वह मुनिसुन्दरसूरिके समयमें न था ऐसा जाना जाता है। क्योंकि अपूर्व त्याग वैराग्य बिना अध्यात्मकल्पद्रुमकी भाषा हृदयमेंसे निकलना असंभवित है। यह स्थिति हीरविजयपि तक बराबर कायम रही ऐसा अनुमान किया जा सकता है । सत्य