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अर्थ-जब बड़े बड़े महोत्सव हो रहे थे और सर्व बंदिये मांगल्य ध्वनि कर रहे थे उस समय श्री तपगच्छके स्वामीने श्रीमुनिसुन्दर वाचकको हर्षपूर्वक उत्तम सूरिमंत्र दिया ।
सङ्घाधिपः श्रीयुतदेवराजः, सदावदातैरवदातकीर्तिः: । उत्कर्षतो दानजलं प्रवर्षन्, प्रावृट्घनाम्भो दरशे तदानीम्॥ ५० ॥ अर्थ-उस समय निरन्तर शुद्ध कार्य करनेसे जिस संघपति देवराज शेठकी कीर्ति उज्ज्वल हो गई थी वह शेठ उत्कर्षपूर्वक दानरूप वर्षाको बरसाता हुआ वर्षाऋतुके मेघके सदृश प्रतीत होने लगा।
माणिक्यरलैः प्रवरैश्वचीर-विभूषणैय॑क्कृतदूषणश्च । प्रचक्रिरे तेन नरेन्द्रकल्पाः, कल्पांहिपाभेन वनीपकौघाः ॥५१ ॥
अर्थ-कल्पवृक्षके समान उस उत्तम सेठने उत्तम माणिक्य रलोंसे और निर्दोष आभूषणोंसे याचकोंके समूहको राजाके सहश बना दिया ।
मुक्ताफलैनिर्मलकान्तिकान्ता, चिरत्नरत्नविशदाक्षतैश्च । वर्धापयामासुरसीमरुपाः, स्त्रियः श्रियः सद्युतिभिगुरूंस्तान् ॥५२॥
अर्थ-अत्यन्त रूपसौन्दर्यवाली ललनाओंने तेजवाले मुक्ताफलोंसे, निर्मल कान्तिवाली कान्ताके योग्य रत्नोंसे और उज्ज्वल प्रक्षतोंसे उन गुरुमहाराजको उस समय बधाया। . गर्जत्यूजितवर्यतूर्यनिकरे दिक्चक्रकुतिम्भरिध्वाने सद्धवलध्वनौ च नितरां प्रोत्सर्पतिस्त्रीमुखात् । हहूतुम्बरुमैत्रगायनगणैविस्तार्यमाणे च सद्गीते श्रीगुरुवो विनेयसहिताः श्रीधर्मशाला ययुः ॥ ५३ ॥
अर्थ-ऊय और उत्तम वाजित्रोंका समूह गर्जना कर रहा था, त्रि. योंके चन्द्रमुखोंसे दिशासमूहके अन्तरकी पूर्ती करती हुई धवल. मंगलोंकी ध्वनि अवच्छिन्नरूपसे प्रसारित हो रही थी और हर तथा तुंबरु नामके गंधर्वोको भी परास्त करनेवाले गायकों (गानेवालों) का समूह उत्तम गायनोंकी गुन्जार चारों ओर फैला रहे थे-उस समय श्री गुरुमहाराजने अपने शिष्यों सहित धर्मशालामें पदार्पण किया। प्राञ्चरऐशलखाण्डिका मृदुलसन्नर्मप्रतिष्ठानिका, श्रीखण्डोज्वलपट्टमुख्यसिचयैश्चञ्चत्प्रमासञ्चयैः । रम्य श्रीयुतसोमसुन्दरमहासूरीश्वराणां व्यधात, पूजां श्रीवितदेवराजमहिमा श्रोदेवराजस्तदा ॥ ५४ ॥ . अर्ध-स्फूरणायमान कान्तिवाला कोमल और उज्ज्वल कपड़े आदि