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द्रवको द्रवीभूत कर देनेसे ( रोक देनेसे ) आश्चर्य पाकर उस नगरके रोजाने शिकार करनेका त्याग किया और सम्पूर्ण देश में हिंसा बन्द कराई । इन सूरिराजको नमस्कार करते हुए राजाओंके मुकुटमें जड़े हुए मणियोंसे जिनके चरणकमल घिसते हैं ऐसे उन प्राचार्य महाराजने प्रथम देवकुलपाटक' नगरमें शान्तिको फैलोनेवाले शान्तिकर स्तोत्रसे महामारीके उपद्रवको नष्ट किया था। जैन शासनका अभ्युदय करनेवाले, कमलके समान उज्ज्वल और चमत्कार उत्पन्न करनेवाले, उज्ज्वल चारित्रोंसे इन सूरिमहाराजने मानदेव और पवित्र हृदयवाले मानतुंग आदि प्रभाविक गुरुत्रोंको स्मरण कराया था।
इस बातसे जाना जाता है कि उस समयमें वे अद्भुत चमत्कारिक पुरुष के रूममें प्रसिद्ध थे। इस श्लोकसे यह सिद्ध होता कि देवकुलपाटकमें महामारीका बड़ा भारी उपद्रव था, जिसको शान्तिकर स्तोत्र. ( संतिकरं )को बनाकर दूर किया गया था। तत्पश्चात् वह शान्तिकर स्तोत्र इतना अधिक लोकप्रिय होगया कि यह नवस्मरणमेंसे एक गिना जाता है। उसकी बारहवीं गाथामें सूरि स्वयं श्री शान्तिनाथकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि:
एवं सुदिट्टिसुरगणसहियो संघस्स संतिजिणचदो। मझवि करेउ रख्खं, मुणिसुन्दरसूरिथुअमहिमा ॥
सम्यग्दृष्टिवाले देवसमूह सहित हे शान्ति जिनचन्द्र ! श्रीसंघका रक्षण करो और मेरी रक्षा करो । इन शान्तिनाथ महाराजकी मुनियों में सुन्दर श्रुतकेवलीयोने और आचार्याने स्तुति की है। यहां विद्वान् स्तोत्रकर्ताने अपना नाम भी गर्मित रीतिसे देदिया है। . उसी स्तोत्रके चोदहवें श्लोकमें जिसको क्षेपक माना जाता है लिखा है कि
तवगच्छगयणदिणयरजुगवरसिरिसोमसुन्दरगुरूणं ।
सुपसायलद्धगणहरविजासिद्धिंभणइ सीसो॥ १-यह देवकुलपाटक वर्तमान उदयपुरके निकटतस्थ देलवाड़ा नगर है। यह आबूके उपरका देलवाड़ा नहीं है । अथवा रायसमुद्र नामक प्रामका होना भी सम्भव है ( पं. गंभीरविजयजी ). . . . ..