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'तपगच्छरूप गगनमें सूर्य समान युगप्रधान श्री सोमसुन्दर गुरुके प्रसादसे प्राप्त हुई गणधर विद्यासिद्धिको प्राप्त किये हुए मुनिसुन्दरसूरि पढ़ते हैं । इस ऊन्तिम श्लोकका पाठ बहुधा नहीं किया जाता है। महामारीके उपद्रवका नाश करनेके लिये इस स्तोत्रको बनाकर व्याधिका नाश किया था ऐसी ही घटना श्रीमानदेवसूरिके समयमें हुइ थी और उन्होंने भी लघुशान्ति बनाकर उपद्रवका नाश किया था । मानतुंगाचार्य भक्तामरके कर्ता हैं और उन्होंने श्लोकके उच्चारणके साथ साथ बन्ध आदि तोडे थे ऐसा कहा जाता है। ऐसे चमत्कारिक पूर्वाचार्योका श्री मुनिसुन्दरसृरिने फिरसे स्मरण कराया था अर्थात् इन महात्माको देखकर उनका भी स्मरण हो आता था । मतलब यह कि ये सूरिमहाराज उन्होंके समान थे ऐसा प्रातष्ठासोमका अभिप्राय है ।
इन सूरिमहाराजके समयके पश्चात् १२५ वर्षमें ५९ वे माटे श्री हीरविजयसूरि हुये; उन्होनें अकबरके दरबारको जैन धर्मका बोध कराया था और तीर्थ सम्बन्धी अनेकों अधिकार प्राप्त किये थे। इन आचार्यके जीवनकालका चरित्र लेखक भी हीरसौभाग्य नामक महाकाव्यके कर्त्ता पूर्वाचार्योके सम्बन्धमे लेख लिखते हैं वे भी मुनिसुन्दरसूरिके आसपास ही हुए हैं। अतः उनका मुनि सुन्दरसूरिके सम्बन्धमें क्या कहना है यह भी जान लेना प्रासंगिक हो जाता है। पट्टश्रियास्य मुनिसुन्दरमूरिशके, संप्राप्तया कुवलयप्रतिबोधदक्षे । कान्त्यैव पद्मसुहृदाशरदिन्दुबिम्बे, प्रीतिः परा व्यरचि लोचनयोजनानाम् ॥
अर्थ:-ईसी ग्रन्थकी टीकाके अनुसार थोडासा विस्तारसे अर्थ लिखने पर इसका भाव स्पष्टतया समझमें भाजायगा। इस श्लोकमें कहा गया है कि इन( सोमसुन्दरसूरि )की पट्टलक्ष्मीपर मुनिसुन्दर नामक सूरिशक ( बड़े आचार्य) जो कुवलय (पृथ्वीरूपी वलय-पक्ष रात्रिविकासी कमल )को जाग्रत करनेमे चतुर शरदऋतुके चन्द्रके समान थे, वे सूर्यकी कान्तिसे लोकोंकी दृष्टिको अत्यन्त आनन्द देनेवाले थे । इस श्लोकमें कहनेका तात्पर्यार्थ यह है कि लोगोंको बोधिबीज, देशविरति, सर्वविरति प्रमुखका दान देने आदिमें उनका विकास करनेमे ये सूरिमहाराज चतुर-दक्ष थे। .