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और जैन समाजका कैसा बंधारण था इस विषयपर अच्छा प्रभाव डालता है जो हम और आगे पढेगें। .
२ उपदेशरत्नाकर-यह ग्रन्थ कोनसे वर्षमें बनाया गया ऐसामालूम नहीं होता है । इस ग्रन्थमें उपदेशकी फिलासोफी बतलाई गई है। उसमें उपदेश करनेकी विधि, उपदेशको ग्रहण करनेके योग्य अथवा अयोग्य पुरुषोंके लक्षण, मोहित चित्तवृत्तिवाले पुरुषके लक्षण कई पुरुष धर्म नहीं साध सकते , कई नहीं पाल सकते उनका स्वरूप, धर्मोपदेशकी वृष्टिसे होनेवाले फल, उपदेशके अयोग्य पुरुषोंकी सर्प, जल आदिके साथ दृष्टांतिक योजना, उपदेश देनेवाले योग्य अयोग्य गुरुका स्वरूप. गुरु और श्रावक दोनोंकी योग्यताका स्वरूप प्रादि आदि अनेक प्रकारके विषयोंपर विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थकी योजना बहुत उत्तम है और उसमेंसे उठती हुई तरंगें आत्माको शान्ति पहुंचाती है । अध्यात्मकल्पद्रुम ग्रन्थकी भाषासे इस ग्रन्थकी भाषा नितान्त भिन्न ही प्रकारकी है । इसमें प्रत्येक विषयपर अनेकों दष्टान्त दिये गये हैं और उपदेशकी एककी एक हकीकतको कइ श्राकारोंमें वर्णन किया गया है। श्रोता और वक्ता दोनोंको इस ग्रन्थको मननपूर्वक पढ़ना चाहिये। अध्यात्मकल्पद्रम जब गम्भीर भाषामें और उच्च वृत्तिमें लिखा गया है तब यह ग्रन्थ अलंकारिक भाषामें और व्यवहारु वृत्तिसे लिखा गया है। धर्म और उसके अधिकारी कोन है यह इस पुस्तकमें विस्तारपूर्वक बतलाया गया है। अनेकों उपयोगी विषयोंका इसमें समावेश हो जाता है । इस ग्रन्थपर विस्तारपूर्वक टोका भी स्वयं मुनिसुन्दरसूरि महाराजने हो की है। इस ग्रन्थका प्रारंभिक भाग श्री जैन विद्याप्रचारक वर्गकी ओरसे छपाया गया है । . ३ अध्यात्मकल्पद्रुम-इस ग्रन्थको सूरि महाराजने कौनसे वर्षमें बनाया यह नहीं बतलाया जा सकता, प्ररन्तु प्रसंग प्रसंगपर अनुभवके उद्गाररूप इसके श्लोक बनाये हों ऐसा प्रतीत होता है। इस ग्रन्थकी भाषा अति उत्तम, हदयपर असर करनेवालो
और विषयरचना बहुत सादी परन्तु उपयोगी और पढ़कर विचार करनेवालेके लिये महान लाभदायक है। इस ग्रन्थके सम्बन्धमें उपोद्घातमें प्रथम ही विवेचन हो चुका है अतः यहां और विशेष लिखना अप्रस्तुत होगा।