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इसप्रकार उनके लगभग समकालीन विद्वानोंको उनके प्रति ऐसा मत था। उनकी शक्ति बहुत अदभुत थी यह तो उनके ग्रन्थोंसे भो प्रगट है। उन्होंने जिन जिन विषयोंको अपने हाथमें लिये है उन उन पर बिना किसी भी प्रकारके क्षोभ या भयके विना हिम्मत और सत्यतासे उन्होंने लिखा है। उनका आत्मिकबल यतिशिक्षा अधिकारद्वारा भलीभांति प्रगर है। ऐसी बाब. तमें ऐसे कठोर शब्दोंमें अपने ही वर्गको शिक्षा देना यह बोना अपने मनपर असाधारण अधिकार और मानसिक धैर्य प्राप्त किये बिना कठिन है। इस अधिकारका प्रत्येक श्लोक सूरिमहाराजकी आत्मविभूति बतलानेके लिये काफी है । इन महात्मा आचार्यने सम्वत् १५०३ कार्तिक शुक्ला १ को स्वर्गारोहण किया । इनके पश्चात् मूल पाटपर रत्नशेखरसूरिने पदार्पण किया ।
इस ग्रन्थके कर्ताके समयमें जैन समाजका बंधारण कैसा था इसका अनुमान करनेसे पहिले इन्होने कौन कौनसे ग्रन्थ बनाये हैं उनको देखले । इन महात्माने अनेकों ग्रन्थ बनाये होगें ऐसा अनेकों कारणोंसे अनुमान होता है । ये दीर्घायु हुये थे; बाल्यकालसे दीक्षा ग्रहण की थी, स्मरणशक्ति, कल्पनाशक्ति और तर्कशक्तिके लिये उपनाम प्राप्त किये हैं और जो जो ग्रन्थ प्राप्य हैं उनसे उनका भाषापर असाधारण अधिकार होना सिद्ध होता है। परन्तु उनके पश्चात् मुसलमानी कालमे राज्यकीः ओरसे, होनेवाले अत्याचारोंके कारण और लोगोंकी अस्तव्यस्त स्थितिके कारण कई ग्रन्थ नष्टप्राय हो गये हैं और उनसे भी अधिक बर्बादि पिछले तीनसौ वर्षों में शास्त्राभ्यासकी ओर विशेष अभिरुचिके अभावके कारण हुई है, ऐसा हमे अनेकों कारणोंसे जान पड़ता है, अतएव इस ग्रन्थकर्ताके किये हुये ग्रन्थोंके सम्बन्धमें भी ऐसा ही होना सम्भव है । खोज करनेसे जिन ग्रन्थोंके नामोंका पता चला है वे निम्नस्थ हैं
१ निदशतरंगिणी-इस ग्रन्थमें चौवीस तीर्थकरोंका चरित्र और सुधर्मास्वामीसे लगाकर मूल पाटपर आनेवाले आचार्योकी नामावली ( Isst ) दी गई है । इस ग्रन्थ के तीन बड़े भाग किये जाना प्रतीत होता है। प्रथम विभागमें श्रीवीर परमात्माका चरित्र दूसरे विभागमें तेवींश तीर्थकरोंके चरित्र और तीसरे विभागमें