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योगिनीजनितमार्युपप्लवो, येन शान्तिकरसंस्तवादिह ।
वर्षणादिव तपर्तुतप्तयो, नीरवाहनिवहेन जज्ञिरे । ___ अर्थ-शिवपुर नामक नगरमें व्यंतरोद्वारा उत्पन्न हुई महामारी ( मरकी )का जब भयंकर उपद्रव चला तब इन महात्माने 'संतिकरं संतिजिणम् ' आदि शब्दोंवाले शान्तिकर स्तोत्रसे जैसे मेघका समूह ग्रीष्म (गर्मी) ऋतुकी धूपको वर्षासे दूर भगा देता है इसप्रकार दूर कर दिया-मारकर हटा दिया । इस श्लोकसे इतना और पत्ता लगता है कि शांतिकरस्तोत्र शिवपुरनगरमें बनाया गया था। ( पहिले देवकुलपत्तनका नाम दिया गया था इससे शिवपुर नाम भिन्न जान पड़ता है। अथवा एक ग्रामके दो भिन्न भिन्न नाम होना सम्भव है।) बाल्येऽपि रश्मीन्सरसीजबन्धुरिवावधानानि वहन्सहस्रम् । अष्टोत्तरं वर्तुलिकानिनादशतं स्म वेवेक्ति धियां निधिर्यः ॥
अर्थ-जिसप्रकार सूर्य छोटा होने पर भा एक हज़ार किरणोंको धारण करता है उसीप्रकार ये सूरि लघुवयके थे फिर भी एक सहस्र अवधान कर सकते थे और वे बुद्धिके भण्डार आचार्य महाराज एक सौ और पाठ जातिके बाटकों( गायनयंत्र के नादकी परीक्षा कर सकते थे । इस सम्बन्धमें टीकाकार एक कथा लिखते हैं-एक समय पाटण नगरमें सुदर देशसे वादियें आये । वे पत्रावलंबन श्रादि भी करते थे । राजसभामें छमास तक बराबर वादविवाद चलता रहा और अन्तमें अपना अद्भुत चातुर्य बतानेके साथ ही साथ मुनिसुन्दरने एक सौ आठ यंत्रोंका भिन्न भिन्न नाद चाहे जैसे अनुक्रमसे पूछने पर कह बतलाया और अपना बुद्धिबल प्रगट कर सर्व वादियोंको परास्त किया । .
अलम्भि याम्यां दिशि येन काली-सरस्वतीदं बिरुई बुधेभ्यः । रवेरुदीच्यामिव तत्र तेजो-ऽतिरिच्यते यत्पुनरत्र चित्रम् ॥
अर्थ-दक्षिण देशके पंडितोंकी पोरसे उनको 'काली सरस्वती' की उपाधि दो गई थी। सूर्यका तेज तो उत्तर दिशामें वृद्धि पाता है, परन्तु इनका प्रताप तो दक्षिणमें भी विस्तृत हो रहा था, यह एक अत्यन्त आश्चर्यजनक बात है।