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आचार्योका वर्णन दिया गया है । ये तीनों विभाग पर्युषण पर्वमें अभी तक जैसे कल्पसूत्रपरकी सुबोधिका टीका पढ़ी जाती है उसीप्रकार पढ़नेके लिये निर्मित किये होंगे ऐसा प्रतीत होता है । इस ग्रन्थके प्रथमके दो विभाग अलभ्य हैं । तीसरा विभोग गुर्वावलीके नामसे प्रसिद्ध है और वह भूल ग्रन्थ श्री बनारस पाठशालाकी अोरसे छपकर बहार पड़ा है । उनके अन्तमें वे श्री लिखते हैं कि. इतिश्रीयुगप्रधानावतारप्रीमत्तपागच्छाधिराजवृहद्च्छनायकपूज्याराध्यपरमाप्तपरमगुरुश्रीदेवसुन्दरसूरिंगणराशिमहिमाऽर्णवानुगामिन्यांत. द्विनेय श्रीमुनिसुन्दरगणिहृदयहिमवदवतीर्ण श्रीगुरुप्रभावपद्महृदप्रभवायां श्रीमहापर्वाधिराजश्रीपर्युषणापर्वविज्ञप्तित्रिदशतरङ्गिण्यां तृतीये श्रीगुरुववर्णनस्रोतसि गुर्वावलीनाम्नि महाहृदेऽनभिव्यक्तगणना एकषष्टिः तरङ्गाः। ___ इस गुर्वावली ग्रन्थके कुल ४९६ श्लोक हैं और ऐतिहासिक ग्रन्थके रूपमें वह बहुत उपयोगी ग्रन्थ गिना जाता है। इस ग्रन्थको उन्होने सम्बत् १४६६ में समाप्त किया था ऐसा उसी ग्रन्थके ४९३ वेमें श्लोकसे ज्ञात होता है। यह इस वर्षकी बात है जिस वर्ष उनको वाचकपद प्राप्त हुआ था । उस ग्रन्थमें वे अपने आपको गणि होना प्रगट करते हैं वे उसी ग्रन्थके ४२० वे श्लोकमें अपने आपकों उपाध्याय होना प्रगट करते हैं और अन्तमें गणि लिखते हैं, इससे सिद्ध होता है कि गणिपद उपाध्यायपदसे बड़ा होगा । गणि अर्थात् गच्छनायक । इसमें किसी भी प्रकार विरोध नहीं होता है । गणि और वाचकपद सम्प्रदायानुसार वे दोनों स्पष्टतया भिन्न भिन्न पदवियें हैं । सोमसुन्दरसूरि महाराज उस समय मूल पाटपर थे, फिर भी मुनिसुन्दर महाराज देवसुन्दरसरिके लिये अति माननीय शब्दोंमें लिखनेके उपरान्त अपने आपको उनके विनेय (शिष्य के रूपमें होना लिखते हैं, इसलिये इस उपोद्घातमें ऊपर लिखे अनुसार मुनिसुन्दर महाराजके दोक्षागुरु देवसुन्दरसूरि होंगे ऐसा बहुधा अनुमान करलियो जाता है । इस गुर्वावली • ग्रन्थमें उनका भाषापरका अधिकार अति उत्तम प्रकारका देखने में प्राता हे और छन्द भी बारम्बार बदलते रहते हैं । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है और विक्रमकी पन्द्रवीं सदीमें तपगच्छको