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वस्त्रोंसे वह देवराज शेठ जो लक्ष्मीके कारण देवराज (इन्द्र )की महिमाका आश्रय लेता था । उसने जब दूर तक सुनाई देनेवाले मधुर गायन गाये जा रहे थे तब श्रीयुत् सोमसुन्दरसूरीश्वरकी पूजा की अर्थात् कपड़े आदि वस्त्र भेट दिये ( आजतक भी पंन्यास पदवी सूरि पदवीके महोत्सवके समय इसीप्रकार वस्त्र बहरानेकी प्रथा प्रचलित है।)
पक्कानविविधै स धीरमुकुटः सद्गन्धकूरोत्करै
लिस्फातिततैः ससौरभघृतोलामृतेश्चामितैः । श्रीसद्धं सकलं कलङ्करहितश्रीजेमयामास तत्, पूजां चीरचयैर्व्यधाश्च गणनातीतः प्रतीतैर्गुणैः ॥ ५५ ॥
अर्थ-धीर पुरुषोंमें मुकुटरूप और निष्कलंक लक्ष्मीवान उन शेठने विविध प्रकारके पकवानोंसे पुष्कल दालके साथ सुगंधित कूर( धान्य )के समूहसे और सुगन्धित घीसे भरपूर ऐसे घेवररूप अमृतसे सम्पूर्ण श्रीसंघको भोजन कराया और गुणोंसे प्रख्यात अपरिमित चीर( वस्त्रों )से उसकी पूजा की।
श्रीमान् सूरिपदे पदेऽथयशसां कारापिते श्रीगुरोरादेशान्मुनिसुन्दरबतिवरश्रीसूरिणो संयुतः । युक्तः पञ्चशतीमितैश्च शकटैरुद्यद्भटैर्भूयसा, सङ्घनाप्यनघेन तूर्णमचलत् श्रीतीर्थयात्रां प्रति ॥ ५६ ॥
अर्थ-श्रीमान् श्रेष्ठीने यशके स्थानरूप सूरिपदपर उनको स्थापन करानेके पश्चात् श्रीगुरुजीकी आज्ञासे व्रतधोरियोंमें उत्तम श्रीमुनिसुन्दरसरिके साथ पाचसो गाड़िये और अनेकों सुभटोंको लेकर व महान् निर्दोष संघ निकाल कर शीघ्र तीर्थयात्राके लिये प्रयान किया ।
भेर्योधूजितहृद्यवाद्यनिनोमाङ्गणं गर्जयन् , रगत्तुङ्गतुरङ्गमक्रमखुराघातैः क्षिति कम्पयन् । चञ्चद्वर्णसुवर्णदण्डकलशैर्देवालयैरुन्नतैः, शोभां बिनम्रशुभ्रयशसा शुक्लं सृजन मातलम् ॥ ५७ ॥ . श्रीशत्रुञ्जयपर्वतेऽपि च गिरौ श्रीरवते दैवतं, श्रीनाभेयजिनं निरस्तवृजिनं नेमीश्वरम् भास्वरम् ।