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भी उत्तम कला नहीं है कि जिसमें अनेक मनुष्य समूहोंसे पूजित इन मुनिसुन्दर वाचकेन्द्रकी बुद्धि भली भांति प्रसारित न होती हो; अर्थात् उनश्रीकी बुद्धि सर्व विद्याकलाओंमें प्रवेश कर सकती थी। मेधाविनः सन्ति परे सहस्रा, अदृष्यवैदुग्यधरा धरायाम् । परं न यस्य प्रसरन्प्रकर्ष, प्रशस्य विक्षस्य तुलाभृतः स्युः॥ ३९ ॥ __ अर्थ-इस संसारमें किसी भी प्रकारके दुषणों रहित विद्वत्ताको धारण करनेवाले सहस्रों बुद्धिमान पुरुष हैं परन्तु प्रसारित होनेवाली उत्कर्षवाली बुद्धिको धारण करनेवाले विद्वान् मुनिसुन्दर उपाध्यायकी बराबरी करनेवाला तो अलभ्य है।
तं वाचकं सूरिपदाईमहन्मतोन्नतिस्फातिकरं विमृश्य । वचोऽनुमेने सुमना महेभ्यराट् श्रीदेवराजस्य गणाधिराजः ॥ १०॥
अर्थ-इन वाचकेन्द्र मुनिसुन्दरको आहत मतकी उन्नति करनेवाले और सूरिपदके योग्य समझकर शुभ मनवाले गच्छपति सोमसुन्दरसूरिने उस महान शेठ देवराजके वचनोंको अंगीकार किया । अगादसौधामनिकाममन्त-श्चित्तं प्रहृष्टः कृतिनां गरिष्ठः । श्राक् प्राहिणोत् कुकुमपत्रिकाच, कीर्त्या संमं भूमितलेऽखिलेऽपि ॥४१॥
अर्थ-तत्पश्चात् कृतार्थ पुरुषों में श्रेष्ठ वह देवराज शेठ हृदयमें आनन्दसे गद्गद् होकर स्वगृहको लोटा और तत्काल अपनी कीर्ति के साथ मनसे सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डलपर कुंकुमपत्रिकायें (ककोत्रिय ) भेजी। समागमत्संचजनाश्च तेना,-हूताः प्रभूताः परिपृतचित्ताः । तदो च रूपास्तसुपर्वगर्वैस्तैस्तत्पुरं स्वःपुरवद्विरेजे ॥ ४२ ॥ अर्थ-उस शेठको निमंत्रण पाकर कई पवित्र चित्तवाले संघके पुरुष आ एकत्रित हुए । रूपमें देवताओंके गर्वको भी पानी भरानेवाले इनएकत्रित हुए जनसमुदायसे वह नगर स्वर्गलोकके सदृश शोभायमान हो गया । भेर्याद्यवाद्यानि जगर्जुरूर्ज-स्वलानि माङ्गल्यरवातुलानि । समं च तैः श्राक् सुकृतानि तानि, पुराकृतानि प्रथितानि तस्य ॥४३॥
अर्थ-मांगलिक शब्दोंसे अतुल्य भेरि आदि वाजिंत्र उग्ररूपसे ऊँचे स्वरसे बजने लगे जिसके साथ ही साथ उस शेठके पूर्व ( पूर्व भवमें ) किये हुए सुकृत्योंका नाद होने लगा । ( इस भवमें जो लक्ष्मी प्राप्त हुइ है यह गत भवके सुकृत्योंकी सूचक है।)