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स्वसाध्यसिखयै सति यत्र हेतू-पन्यासमातन्वति वावमूमौ । प्रावादकोन्मादभरः शरीरे, स्वेदेन साई किल जागलीति ॥ ३४ ॥
अर्थ-जो वाचकपति वादभूमिमें अपने साध्यकीसिद्धिके लिये हेतुका उपन्यास करते हैं ( साध्य और हेतु दोनों तर्कके पारिभाषिक शब्द हैं ) तब उग्रवादियोंके उन्मादका समूह शरीरमें जैसे पसीना शुष्क हो जाता है वैसे शुष्क हो जाता है। यमिमिता श्रीगुरुभव्यकाव्य, विज्ञप्तिगंगा गुणसत्तरंगा । प्रतालयन्ती कलिकल्मषोघं, हृष्टोनकाषीत्सुमनः समूहान् ॥ ३५ ॥
जिन वाचकेन्द्रकी रची हुइ श्री गुरुकी भव्य कवितारूप गंगानदी गुणरूप तरंगोंसे उछलती हुइ कलिकालके पापके समूहको धो डालती थी और अनेक विद्वानोंको हर्षित करती थी ( यह काव्य त्रिदशतरंगिणी जिसका एक भाग गुर्वावली है उसको सूचित करता होगा ऐसा प्रतीत होता है। यह काव्य उन्होने सरिपद, प्राप्त कर. नेके पूर्व सम्वत् १४६६ में लिखा था ऐसा हम आगे पढ़ेगें।) येन प्रक्लुप्ताः स्तुतयः स्तवाश्च, गाम्भीर्यभृश्नव्यसदर्थसार्थाः । श्रीसिद्धसेनादिमहाकवीनां कृतोर्मतीद्धा अनुचक्रिरे ताः ॥ ३६ ॥ अर्थ-जिनके द्वारा रची हुइ गंभीरतासे परिपूर्ण नवीन उत्तम अर्थघाली स्तुतियें और स्तवन श्रीसिद्धसेन दिवाकरादि महाकवियोंद्वारा रची हुइ बुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुई कृतियोंका अनुसरण करते थे; अर्थात् काव्यचमत्कृति, रस और अलंकारसे भरपूर थी। ( यह श्लोक 'स्तोत्ररत्नकोष ' नामक उनके प्रसिद्ध स्तोत्रों तथा अन्य अप्राप्य स्तवनोंको सूचित करता हो ऐसा जान पड़ता है।
सधुक्तिभृत्संस्कृतजल्पशक्तिः, सहस्रनाम्नां कथनैकशक्तिः । तात्कालिकी नव्यकवित्वशक्ति-न यं विनान्यत्र समीक्ष्यतेऽध ॥३०॥
अर्थ-सुयुक्तिसे भरपूर संस्कृत बोलनेकी शक्ति, एक सहस्र नामोंका एक साथ उच्चारण करनेकी ताकात और तात्कालिक नवीन कविता बनानेका सामर्थ्य इनके अतिरिक्त अन्य किसीमें नहीं पाई जाता । ( संस्कृत भाषापर अधिकार, सहस्रावधानीपन और शिघ्रकवित्वइन तीनों विषयोंका यहाँ प्रतिपादन होता है।) विद्या न सास्ते निरवधताभृत्कला न सा चास्ति वरा धरायाम्। यस्यां न यस्याङ्गिगणाचितस्य, बुद्धिविशुद्धा प्रसरीसरीति ॥३८॥ अर्थ-विश्वमें ऐसा कोई भी निरवद्य विधा नहीं है और ऐसी कोई