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की भाषा मधुर और स्पष्ट होनेके उपरान्त शैली भी अत्यन्त साधारण और प्रभावकारक है।
यह ग्रन्थ मुनिजीवन और श्राद्धजीवनके मार्गदर्शकके रूपसे अत्यन्त उपयोगी होना प्रतीत होता है। यह ग्रन्थ व्याख्यानमें कई
स्थानोंपर वारम्बार पढ़ा जाता है इसके उपरान्त प्रचार अनेक मुनिमहारोज इस ग्रन्थको साधंत कंठस्थ
करते हैं और इसका निरन्तर पाठ भी करते हैं ऐसा हमारे अनुभवसिद्ध है। इस ग्रन्थकी महत्ता और उपयोगिताके सम्बन्धमें इतनी हकीकत ही काफी होगी।
जिस महान् हेतुसे यह ग्रन्थ लिखा गया है उसको विशेषतया ध्यानमें रखनेकी आवश्यकता है। समताप्राप्तिके नजदीकका
हेतु और मोक्षप्राप्तिके परंपरागत हेतु है ये दोनों __हेतु अनन्तर और परम्पर हेतु प्राप्तकर सके ऐसी
शैलीसे और दंगसे ग्रन्थ लिखा गया है। इस ग्रन्थपर धनविजयगणीने अधिरोहिणी नामकी टीका लिखी हैं; यह टीका अत्यन्त उत्तम और विस्तारवाली संस्कृत
भाषामें है । टीकाकार महान् विद्वान् जान पड़ते हैं। टीका यहां शब्दार्थ लिखनेमें इस टोकाका बारम्बार
उपयोग किया गया है। विवेचनमें भी कई स्थान. पर उनके विचार उद्धृत किये गये हैं। जिस स्थानपर उनका नाम नहीं लिखा गया है वहाँ भी उन्हीकी छाया ही होगी। मैं प्रत्येक श्लोकपर विवेचन लिखनेसे पहिले उस टीकाको पढ़ता था।
इस ग्रन्थका विवेचन लिखते समय ग्रन्थकर्ताका क्या आशय है इसका प्रत्येक समय यथोचित विचार किया गया है। अन्य
विद्वान लेखकोंके इसी विषयपरके विचार और क्षमायाचना पाश्चात्य शिक्षाके संस्कारसे प्राप्त हुए विचार आदिको
लिख कर भरसक विवेचनको उपयोगी बनानेका प्रयत्न किया गया है, जिसपर भी मन्द अभ्यासके कारण मतिदोषका रहजाना सम्भव है, जिसके लिये उचित स्थानपर तमायाचना की गई है तथा पुनः यहांपर भी क्षमायाचना की जाती है।
इस ग्रन्थपर संस्कृतमें धनविजयगणीजीकी टीका है । तदुपरांत रन्नचंद्रगणीजीको भी है । इस ग्रन्थकी काव्यचमत्कृति और उपदेश