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है, इस 'द्रष्टिसे इस विषयमें कुछ कुछ संतोष होता है, परन्तु अमुक आचार्यका जीवनचरित्र लिखना हो तो एक दो अपवाद ( मेरी मान्यतानुसार हेमचन्द्राचार्य और हीरविजयसूरि )के अतिरिक्त अन्यके विषयमें कुछ भी मिलना असम्भव है। स्थिति इस. प्रकार है अतएव इस महान ग्रन्थके कर्ताके लिये बहुत इतिहास मिलना तो कठिन है, परन्तु खोज करनेसे जो अल्पाधिक प्राप्त हुआ है उसे यहां दिया गया है।
इस ग्रन्थके कर्ता मुनिसुन्दरसूरि महाराज हैं। उनका जन्म विक्रम सम्बत् १४३६ में ( सन् १३८० ई, स.में ) हुआ था। उनका जन्म कौनसे नगरमें हुआ था; उनके मातापिता कौन थे और वे किस जातिके थे इसके सम्बन्धमें हमको कुछ भी पत्ता न चल सका । उन्होने सात वर्षकी छोटीसी वयमें सम्वत् १४४३के सालमें जैनधर्मकी दीक्षा ली थी । ऐसी छोटीसी उम्रमें दीक्षा लेनेके सम्बन्धमें अथवा देनेके सम्बन्धमें अभीतक दोनों श्रोरसे वादविवाद चलता है, किन्तु इस सम्बन्धमें पूर्वकालके विचार बहुत भिन्न ही प्रकारके थे । आजकल अनुभवरहित छोटी वयवालेको दीक्षा देने में कई पुरुष बड़ी भारी भूल करना समझते हैं, पूर्वकोलमें सर्वानुमते ऐसा विचार था कि इन्द्रियस्वादमें पड़ जानेके पश्चात् इस प्राणीका इससे छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन होजाता है अतएव पूर्वके शुभ संस्कारसे किसी भी प्राणीको लघु वयमें यदि चारित्र ग्रहण करनेकी अभिलाषा हो तो उसमें विलम्ब न करना, अन्तराय न देना और उसको संसारमें आसक्त होनेका अवसर नहीं देना चाहिये। इतिहाससे भो ऐसा विदित है कि जैन शासनानुसार अन्य दर्शनोंमें भी जिन जिन महात्माओंने अपनी कीर्ति फैलाई है, जो अद्
१ यह हकीकत ठीक नही है । अगले पृष्ठके नोटको पढें । शोध. खोलसे कई प्राचार्यों के चरित्र मिलना सम्भव है। हीरसौभाग्यकाव्य, गुरुगुणरत्नाकर, सोमसौभाग्यकाव्य, जयानन्दचरित्र, विजयप्रशस्तिकाव्य, आदि अनेक प्रन्थ ऐतिहास चरित्रों की पूर्तीके सहाय्यरुप हैं, तदुपरान्त अनेक प्रन्थोंमें लिखित प्रशस्तियें भी उपयोगी साधकके रूपमें सहाय्यभूत हैं।
२ बहुधा ऐसा सम्प्रदाय सुना जाता है कि एकी वर्षमें दीक्षा नहीं दी जा सकती है तो कदाच आठवें वर्षमें पैर रखते ही.उनको दीक्षा दी जाना सम्भव है।