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चलता है, परन्तु उन्होने कई वर्षों तक गच्छका भार वहन किया था ऐसा अनुमान किया जाता है। वे सम्बत् १४९९ में कालधर्मको प्राप्त हुए, अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने गच्छाधिपतिपन लगभग तीस या पैंतीस वर्ष तक तो किया ही होगा। उपरोक्त. 'सोमसौभाग्यकाव्य' ग्रन्थ काव्यका एक नमूना है इसलिये इसरूपसे भी वह प्रधानतया पढ़ने योग्य है, तदुपरान्त सोमसुन्दरसूरिके शिष्यरत्न प्रतिष्ठासोमने' उसे सम्वत् १५२४ में बनाया है, अतः जितनी हद तक वह ऐतिहासिक हकीकतको पूरी करता है उतने हद तक वह बहुत आधारभूत समझा जाता है। यह ग्रन्थ कइ हकीकतोंपर सहाय्यभूत होता है । अतः उपोद्घातके ऐतिहासिक विभागमें इसका प्राधार बारम्बार लिया गया है
मुनिसुन्दरसूरिको वाचक पदवी (उपाध्यायकी पदवी ) विक्रम सम्वत् १४६६ में दी गई थी और उस समयसे वे मुनिसुन्दर उपाध्यायके नामसे प्रख्यात हुये थे। उस समय गच्छाधिपति सोमसुन्दरसूरि थे। इस बातको प्रधानतया नोट करलेनेकी आवश्यकता है। इन्हो महात्माओको देवराज शेठके.आग्रहसे विक्रम सम्वत् १४७८ में सूरिपद मिला और उसके पश्चात् वे मुनिसुन्दरसूरिके नामसे पृथ्वीतलपर प्रसिद्ध हुए । इस सूरिपवाका महात्सव सोमसौभाग्य काव्यमें अत्यन्त उत्तमताके साथ वर्णन किया गया है , वह यहां
२. यह सोमसौभाग्य काव्य श्री प्रतिष्ठासोमका बनाया हुआ है, परन्तु हीरसौभाग्य काव्य जो देवविमलगणिने बनाया है उसके प्रथम सर्गके १३ श्लोकमें वे कहते हैं कि ' तथा सुमतिसाधुसूरिकृत सोमसौभाग्यकाव्य ' अर्थात् देवविमलगणि जिसने उस ग्रन्थको सम्वत् १६७१ से ८१ तकमें बनाया हुआ जान पड़ता है उनके मतानुसार सोमसौभाग्य काव्यके कर्ता सुमतिसुरि थे ऐसा प्रतीत होता है; परन्तु सोमसौभाग्य काव्यके दशवे सर्गके ७४ वे श्लोकमें लिखते हैं कि “ साधुना सुमतिसाधुनादरात् नव्यं काव्यं निर्ममे " अर्थात् सुमतिसाधुके आदरसे यह नविन काव्य बनाया है ऐसा होना चाहिये । उसीप्रकार उसी सर्गके ७३ वे श्लोकसे यह ग्रन्थकर्ता प्रतिष्ठासोम है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । देवविमलगणि बहुत नजदीकके समयमें होनेपर भी वे इसप्रकार लिखते हैं इससे यह हकीकत विचारने योग्य है । सुमतिसाधुसूरि तपगच्छकी गादीपर ५४ वी पाटे हुए थे । उसीके दशवे सर्गका ७४ वां श्लोक क्षेपक जैसा प्रतीत होता है।