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किया था और वे सुधर्मास्वामीसे पचासवे गच्छाधिपति थे पेसा मुनिसुन्दरमरिजी अपनी गुर्वावलोके श्लोक ३६८ में लिखते हैं। इन ओचार्यश्रीके पाटपर श्रीसोमसुन्दरसूरि आये। इन सोमसुन्दरसूरिका इतिहास विशेषतया पढ़ने योग्य है और वह ' सोमसौभाग्यकाव्य 'मेसे प्राप्त हो सकता है । यहां तो उनका और मुनिसुन्दरसूरिका इतिहास प्रावश्यकतानुसार एकत्रित कर संक्षेपमें बतलाया गया है । ये सोमसुन्दरसूरि जयानन्दसूरिके शिष्य थे और उनको १५५० में वाचक (उपाध्याय ) पद प्राप्त हुआ था । इस जमानेमें श्रीमंत शेठिये सूरिपदकी प्रतिष्ठाका महोत्सव बड़े आडम्बरसे करते थे और गुरुमहाराज संघके अग्रणी गृहस्थोंकी विनतिपर अपने शिष्योंमेंसे योग्य शिष्यको सूरिपद प्रदान करते थे। इसीप्रकार सोमसुन्दरसरिने छ शिष्योंको सूरिपद प्रदान किया ऐसा सोमसौभाग्यकाव्यसे जाना जाता है। देवराज शेठके आग्रहसे मुनिसुन्दरको, गोविन्दशेठके खर्चेसे जयचन्द्रको, नीबशेठके खर्चेपर भुवनसुन्दरको, गुणराजशेठके आग्रहसे महुवामें जिनसुन्दर पाचकको, विशलशेठीके पुत्र चम्पकके आग्रहसे जिनकीतिको और राणपुरमें धरणेन्द्र शेठके प्राग्रहसे सोमदेव पाचकको सूरिपद दिये गये थे और वे सर्व महोत्सव बड़े भारी खर्चासे, अत्यन्त प्राडम्बरसे श्रीसोमसुन्दरसूरिके समयमें हुए थे । इसप्रकार सूरि चाहे जितने भी क्यों न हो, परन्तु गच्छाधिपति तो एक ही सूरि होता था ऐसी पति थी । इस नियमा. नुसार नरसिंह शेठके प्राग्रहसे अदभुत महोत्सवके साथ सोमसु. म्वरसूरिको सम्बत् १४९७ में सूरिपद प्राप्त हुआ था । उस शेठकी गुरुभक्ति कितनी उत्तम श्रेणीकी थी और उस समयमें साधुओंका ओर सामान्यतया भी कैसा प्रेम था यह बहुत विचारने योग्य है। सोमसुन्दरसूरि कब गच्छाधिपति हुए उस सम्वत्का पत्ता नहीं गच्छाधिपति हुये । जब गच्छाधिपति हुये तब भी वे देवसुन्दरसूरिके नामले ही प्रसिद्ध थे इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनको सूरिपदवी तो इस समयके पहिले ही मिल गई थी।
१. सोमसौभाग्य काव्यके ५ वे सर्गके ५१ वे श्लोकको और गुर्वावलीके ३९३ में श्लोकको पढ़िये । यह सूरिपद अणहिलपुरपाटणमें प्रदान किया गया था ।